अगस्त 31, 2018

शोध महिअलों द्वारा पुरुषों की उन्नति पर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

 शोध महिअलों द्वारा पुरुषों की उन्नति पर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

( ये इक काल्पनिक व्यथा कथा है और इसका किसी व्यक्ति से कोई संबंध केवल इत्तेफाक हो सकता है )

        अधिकतर टीवी सीरियल में ये शब्द इतने बारीक लिखे होते हैं कि कोई पढ़ नहीं सकता है। और आजकल के टीवी सीरियल और फ़िल्में वास्तविकता से मीलों दूर होते भी हैं। मगर यहां सच और कल्पना का मेल टूथपेस्ट के विज्ञापन की तरह बेस्ट है। महिला को ये बताने को पीएचडी नहीं करनी पड़ी , कह दिया तो कह दिया , मुफ्त में नहीं पैसे लेकर कहा है। पैसे का महत्व समझना हो तो उस तथाकथित महानायक से पूछना जो बताता है स्वाद सबकी मां के बने खाने का एक ही है और पांव लागूं मांजी कहता है मसाले की डिब्बी को। इसी को कहते हैं जिसकी खाओ बाजरी उसकी लगाओ हाज़िरी। जो भी पैसा से उसी के गुण गाओ। आजकल बादाम बेच रहे हैं , बादाम खाओ करोड़पति बन जाओ। जनाब जो बादाम आपने खाये सब नहीं खा सकते , चिंता हो भी तो आपके हाथ से मालिश नहीं करा सकते। आपको लगता है शोध की बात तो भूल ही गई , भला इसका उससे क्या संबंध हो सकता है। ये जो हैं वो नहीं होते अगर इक महिला ने इनको कई फिल्मों में असफल होने के बाद वापस नहीं जाने देने को नायिका की भूमिका नहीं की होती। उस भलाई का बदला चुकाने को उनसे विवाह किया था बाद में उसकी कहानी फिर सही। आज महिलाओं की सभा में विषय यही है कौन कौन पुरुष किस किस महिला की वजह से कहां पहुंचा है। इक मीना कुमारी अदाकारा भी थी जिस को इस्तेमाल कर कितने लोग नायक बन गए और फिर छोड़ दिया। रेखा की भी कहानी सब जानते हैं , मगर समस्या बीच वालों की है , मध्यमवर्ग की महिला को बोलने तक की मनाही है। 
 
            इक आधुनिक नारी कह रही है कि जो राजनेता आज सत्ता के शिखर पर है उस में भी एक महिला का हाथ है। जब उसे विवाह करके छोड़ गया था और कोई कारण भी नहीं बताया था न तलाक ही दिया था , तब उस महिला को अपने अधिकार की लड़ाई लड़नी चाहिए थी। मेरा दावा है अगर आजकल की तरह वो या उसके परिवार वाले पुलिस थाने शिकायत दर्ज कराते तो झक मार कर वो घर वापस आया होता। मगर क्योंकि उस महिला को वो बात समझ आ गई थी जो बाकी महिलाओं को आधी ज़िंदगी बिताने के बाद समझ आती है कि इससे शादी कर मिला क्या। झूठे सपने अच्छे दिन वाले जो कब आएंगे खुद भी नहीं जानते। अब अगर खुद नौकरी कर अपने पैरों पर खड़े होकर कमाना है तो ऐसे आदमी का साथ काहे रखना जो विवाह करता है और छोड़ देता है। आज उस महिला ने नहीं इन्होंने खुद स्वीकार किया है कि वो मेरी पत्नी है , महिला को मालूम है ऐसे आदमी को अपना पति बताना कोई ज़रूरी नहीं है। ये किसी को कुछ नहीं दे सकता है झूठे वादों को छोड़कर। अब कोई पुरुष सीना ठोककर ये तो नहीं कह सकता कि मुझे मेरी बीवी से बचाओ। लड़ती है झगड़ती है ये करना तो हमारा युगों से चला आ रहा अधिकार है। बीवी के बेलन से डरकर भागने वाले को क्या कहते हैं। चाहे जो भी हो आज वो जो भी है अपनी पत्नी की मेहरबानी से ही तो है। उसको घर से भागना रास आया तो इधर उधर मौज मस्ती करने के बाद राजनीती में चला आया और इतना बड़ा नेता बन गया है। अभी भी पत्नी दुनिया की नज़र में छोड़ी हुई औरत है। घर से निकालने में और छोड़ने में भी अंतर होता है। घर से निकालता कोई तो लोग उस पति को बुरा भला कहते हैं , खुद भाग जाता पति घर से तो ससुराल वालों से दुनिया वालों तक तोहमत महिला पर लगाते हैं। क्या हर बात पर अदालत जाने वाले महिला आयोग मानवाधिकार आयोग या महिलाओं के संगठन को ये सब दिखाई नहीं देता है। समरथ को नहीं दोष गुसाईं , मध्यम वर्ग को ही सब सहना पड़ता है। गरीब महिला को पति कुछ कहे तो गली में बवाल कर देती है। अमीर महिला आधी जायदाद छीन लेती है और दूसरी शादी कर लेती है। कितनी फ़िल्मी अदाकारा कितनी शादी कर चुकी कोई नहीं जनता। किसी किसी ने तो शादीशुदा पुरुष से भी शादी कर ली मगर समाज की जुबां पर ताला लगा रहा दौलत का। खुद तुलसीदास घर से बीवी के ताने से तंग आकर भागे तो रामायण रच डाली। रॉयल्टी बीवी को मिलती तो ठीक था। इक शब्द नहीं लिखा कि मुझे प्रेरणा मिली अपनी पत्नी से। 
 
                इक दूसरी महिला ने कहा कि अभी भी महिला को इक मिसाल कायम करनी चाहिए और अदालत में गुज़ारे भत्ते की मांग करनी चाहिए। अगर सही समय पर मुकदमा दर्ज करवाती तो कब की उस आदमी की समझ काम करने लगती। पुलिस अदालत के फेरे सात फेरों से कहीं ज़्यादा कठिन होते हैं। हो सकता है उस महिला को यही लगा हो ऐसे पति की पत्नी बनकर रहने से अच्छा है अपने दम पर रहना। मगर ऐसे से ही पुरुषों को मनमानी की आदत पड़ जाती है और जब चाहा छोड़ जाते हैं सभी को। हम हैरान हैं एक महिला के अधिकारों की रक्षा सुरक्षा नहीं करने वाले को महिलाएं ही वोट कैसे दे सकती हैं। महिला विरोधी से महिला आरक्षण की उम्मीद नहीं की जा सकती है। अपनी पत्नी को जो अच्छे दिन नहीं दिखला सका उससे देश को अच्छे दिन लाने की बात सुन भरोसा करना बहुत भारी भूल है। कोई भी अगर किसी महिला से शादी करने के बाद छोड़ता है बिना कारण और तलाक दिये बगैर तो उसको ऐसा करने की सज़ा मिलनी ही चाहिए। औरत अगर किसी की उन्नति का कारण बन सकती है तो किसी को उसकी असलियत भी बता सकती है। ऐसी महिलाएं सारे महिला समाज का अहित करती हैं एक अपना ही नुकसान नहीं करवाती हैं। ये बात क्या तीन तलाक से कम खराब है। हम महिलाओं को उस छोड़ दी गई औरत को अधिकार दिलवाने ही चाहिएं। सभी महिला संगठन साथ मिलकर मांग करें कि हमारी उस बहन को इतने सालों बाद ही सही इंसाफ मिलना चाहिए और हमारी मांग नहीं मांगी जाती और आदर सहित अपनी पत्नी को लाकर अपने साथ सिंघासन पर नहीं बिठाया गया तो एक भी महिला उस दल को वोट देकर महिला जगत से धोखा नहीं करेगी। अगले चुनाव का मुद्दा हम ने ही तय करना है। अब एक तिहाई आरक्षण महिलाओं को मिले न मिले बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए। उनकी सहानुभूति मुस्लिम महिलाओं के साथ है तो क्या हम महिला नहीं हैं। फैसला उनका है घर बसाना है चुनाव जीतना है या फिर तलाक ही सही। जंग आर पार की है। 

मौत की शायरी ज़िंदगी की कविता ( तिरछी चाल ) डॉ लोक सेतिया

मौत की शायरी ज़िंदगी की कविता ( तिरछी चाल ) डॉ लोक सेतिया 

       उन्होंने तय कर दिया है विषय अब सबको इस पर बात करनी होगी। हम अपनी मौत का सामान ले चले। की उसने मेरे कत्ल के बाद कत्ल से तौबा। ज़िंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है जाहपनाह , कब कौन कैसे उठेगा कोई नहीं जनता। हम सब तो रंगमच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है। हाहाहाहाहा बाबू मोशाय। ये फ़िल्मी डायलॉग लिखने पड़े शुरुआत करने को भूमिका बनानी है। मौत तू इक कविता है , मुझसे वादा है इक कविता का मिलेगी मुझको। ग़ालिब को कैसे भूल सकते हैं। मौत का एक दिन मुआयन है नींद क्यों रात भर नहीं आती। तेरे वादे पे सितमगर अभी और सब्र करते अगर अपनी ज़िंदगी का हमें ऐतबार होता। असली मुकदमा किसी और के कत्ल होने का है , कितने साल हो गए फैसला अटका पड़ा है। कत्ल हुआ या किया गया कैसे साबित हो जब अभी लाश भी बरामद नहीं हुई है लोकतंत्र की। वो कब ज़िंदा था कोई गवाह भी नहीं मिलता गवाही देने को कि हां मैंने देखा था उसे भला चंगा था। अधमरा तो बहुत लोगों ने बताया कि देखा था मगर लगता था मरने को है। कोई कहता है ख़ुदकुशी की होगी सब तो आशिक़ हैं भला कौन कत्ल करेगा लोकतंत्र को। हम पुजारी हैं सभी नेता सब दल वाले , उसी की रोटी खाते हैं वही रोज़गार है हम उसे कैसे मरने देंगे। जीने भी नहीं देते मरने भी नहीं देते। दुश्मन ए जां हैं। चलो बीच में मैं अपनी कुछ रचनाएं भी शामिल कर लेता हूं , मौका है दस्तूर भी है। 

उन्हें कैसे जीना , हमें कैसे मरना। 

उन्हें कैसे जीना   ,  हमें कैसे मरना ,
ये मर्ज़ी है उनकी , हमें क्या है करना।
 
सियासत हमेशा यही चाहती है ,
ज़रूरी सभी हुक्मरानों से डरना। 
 
उन्हें झूठ कहना , तुम्हें सच समझना ,
कहो सच अगर तो है उनको अखरना। 
 
किनारे भी उनके है पतवार उनकी ,
हमें डूबने को भंवर में उतरना। 
 
भला प्यास सत्ता की बुझती कहीं है ,
लहू है हमारा उन्हें जाम भरना। 
 
कहीं दोस्त दुश्मन खड़े साथ हों , तुम ,
नहीं भूलकर भी उधर से गुज़रना। 
 
सभी लोग हैरान ये देख " तनहा "
हसीनों से बढ़कर है उनका संवरना। 

मेरे दुश्मन मुझे जीने की दुआ न दे। 

मेरे दुश्मन मुझे जीने की दुआ न दे ,
मौत दे मुझको मगर ऐसी सज़ा न दे।

उम्र भर चलता रहा हूं शोलों पे मैं ,
न बुझा इनको ,मगर अब तू हवा न दे।

जो सरे आम बिके नीलाम हो कभी ,
सोने चांदी से तुले ऐसी वफ़ा न दे।

आ न पाऊंगा यूं तो तिरे करीब मैं ,
मुझको तूं इतनी बुलंदी से सदा न दे।

दामन अपना तू कांटों से बचा के चल ,
और फूलों को कोई शिकवा गिला न दे।

किस तरह तुझ को सुनाऊं दास्ताने ग़म ,
डरता हूं मैं ये कहीं तुझको रुला न दे।

ज़िंदगी हमसे रहेगी तब तलक खफा ,
जब तलक मौत हमें आकर सुला न दे।  

ख़ुदकुशी आज कर गया कोई। 

ख़ुदकुशी आज कर गया कोई ,
ज़िंदगी तुझ से डर गया कोई।

तेज़ झोंकों में रेत के घर सा ,
ग़म का मारा बिखर गया कोई।

न मिला कोई दर तो मज़बूरन ,
मौत के द्वार पर गया कोई।

खूब उजाड़ा ज़माने भर ने मगर ,
फिर से खुद ही संवर गया कोई।

ये ज़माना बड़ा ही ज़ालिम है ,
उसपे इल्ज़ाम धर गया कोई।

और गहराई शाम ए तन्हाई ,
मुझको तनहा यूँ कर गया कोई।

है कोई अपनी कब्र खुद ही "लोक" ,
जीते जी कब से मर गया कोई।   

जश्न यारो मेरे मरने का मनाया जाये। 

जश्न यारो , मेरे मरने का मनाया जाये ,
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये।

इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात ,
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये।

वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं ,
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये।

मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे ,
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये।

दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई ,
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये।

जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी ,
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये।   
 
         लोग क्या क्या नहीं कहते हैं। कोई कहता है देश की वास्तविकता से ध्यान भटकाना है। रोज़ कोई नया विषय देते हैं आज इस पर बात होगी , बेखबर आज की बड़ी खबर है क्या आपको इसकी खबर है। नोटबंदी को आप असफल बताओ उनकी सफलता है असफलता में भी। कालिख धुल गई सब काला धन सफ़ेद हो गया कमाल है कि नहीं। दाग़दार सब गंगा स्नान करते रहे गंगा और मैली हुई तो क्या दाग़ साफ़ हो गए हैं। चेहरे पर एक भी दाग़ नहीं है कोई काला तिल भी नहीं जाकर टीका लगाओ कहीं बुरी नज़र नहीं लगे। सच इस से पहले किसी पीएम को देखा ऐसे सजा संवरा देश ने सत्तर साल में , क्या ये नया इतिहास नहीं रचा गया है। बुलंदी पर जाकर गिरने का डर फिसलने का डर होता ही है। मैं आज तक इस राज़ को नहीं समझ पाया कि जो मौत मांगते हैं उनको मौत नहीं मिलती और जो जीना चाहते हैं मौत उनको धर दबोचती है। झूठ नहीं कहता मुझे वास्तव में लगता है मौत तो बहुत खूबसूरत होगी जो ज़िंदगी की सभी परेशानियों से मुक्ति दिलवा देगी। जब आएगी तो स्वागत करना है , बड़ी देर कर दी मेहरबां आते आते। कल इक खबर थी झूठी या सच्ची नहीं मालूम , कोई 182 साल का है वाराणसी में मौत जिसके घर का पता भूल गई है। 
 
      जब हम यकीन करते हैं कि कौन कब कैसे मरेगा ऊपर वाले की मर्ज़ी है तो बेकार घबराते हैं। गीता की बात समझें तो मौत है ही नहीं आत्मा अमर है और जन्म लेती रहती है। किसी शायर के कुछ लाजवाब शेर अर्ज़ हैं। 

ज़िंदगी की तल्खियां बढ़ गईं इसी से समझ लो , ज़हर बाज़ार में और महंगा हो गया। 

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं , और क्या जुर्म है पता ही नहीं। 

ज़िंदगी अब बता कहां जायें , ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं। 

ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है , दूसरा कोई रास्ता ही नहीं। 

जिस के कारण फसाद होते हैं , उसका कुछ अता पता ही नहीं। 

झूठ को सच करे हुए हैं लोग।  

   (  लोक सेतिया "तनहा"  )

झूठ को सच करे हुए हैं लोग ,
बेज़ुबां कुछ डरे हुए हैं लोग।

नज़र आते हैं चलते फिरते से ,
मन से लेकिन मरे हुए हैं लोग।

उनके चेहरे हसीन हैं लेकिन ,
ज़हर अंदर भरे हुए हैं लोग।

गोलियां दागते हैं सीनों पर ,
बैर सबसे करे हुए हैं लोग।

शिकवा उनको है क्यों ज़माने से ,
खुद ही बिक कर धरे हुए हैं लोग।

जितना उनके करीब जाते हैं ,
उतना हमसे परे हुए हैं लोग। 
 
   इक लघुकथा है ज़िंदगी जिसका शीर्षक है।  कोई हर बात पर मरने की बात करता था।  जब भी उसकी नाकामी पर बात होती जान देने की बात करता था। लोग घबराते किसी बात से निराश होकर अपनी जान ही नहीं गंवा दे। ख़ुदकुशी करना कोई कायरता नहीं है बड़े साहस की बात है , कायरता तो उसे कहते हैं जो ताकत से कमज़ोर को कत्ल किया करते हैं आंतकवादी हों डाकू लुटेरे या फिर लाशों पर वोटों की राजनीति करने वाले। गुनाह की दुनिया की असलियत यही है कि हर पल मौत का साया रहता है सर पर। मगर सब से बड़े कायर वो हैं जो कानून की आड़ में अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल कर किसी को मारते हैं झूठे एनकउंटर के नाम पर। इतिहास में दबी पड़ी हैं ऐसी बहुत कहानियां अगर राज़ खुल जाएं तो धरती पर भगवान कहलाने वालों का क्या होगा। बात निकली तो कहां तलक आई है , खुल गया राज़ तो रुसवाई ही रुसवाई है। आप चुप चाप पी जाओ हलाहल है ये बस यही आखिरी दवाई है।

अगस्त 30, 2018

जीने का हक हमारा भी तो है ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

     जीने का हक हमारा भी तो है ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

नहीं नहीं नहीं , हम इंसान हैं इंसानियत की बात करते हैं ,
किसी की जान की कीमत नहीं लगाते हैं सिक्कों से हम ,
आपकी जान भी जान है हम भी जान की कीमत जानते हैं ,
आदमी आदमी को दुश्मन समझे इसको गलत मानते हैं।

आप सौ साल जियें खुश रहें हम दिल से दुआ करते हैं ,
मगर हम भी जीने के हकदार हैं इतनी  इल्तिज़ा करते हैं ,
आपकी सियासत ये क्या सियासत है आपने सोचा कभी ,
किस तरह देश के लोग हर दिन बेमौत भी मरा करते हैं। 

आप की हिफाज़त कितनी ज़रूरी है बस इसी का ध्यान है ,
हम आम लोगों की खातिर श्मशान और कबरिस्तान है ,
लाखों की मौत की कोई बात नहीं होती है क्यों भला ,
आपको डर है अगर तो हर तरफ मचा कोहराम है। 

जो कहते हैं हम सब की पल पल की खबर रखते हैं ,
क्या कभी गरीबों पर भी  इनायत की नज़र रखते है ,
खेलते हैं भावनाओं से जनता की इशारों पर किसके ,
काश खुद को देखते क्या जताते हैं और क्या करते हैं।

मौत को किसने बाज़ार बनाया  है ज़रा बतलाओ ,
बस करो ज़हर नफरतों का अब और ना फैलाओ ,
सुरक्षा आपकी हम करें या आपने हमारी करनी है ,
आग को आग से नहीं पानी से कभी खुद बुझाओ।

हम कभी ज़िंदा थे शायद खबर आपको भी होगी ,
कत्ल हुआ ख़ुदकुशी की या बेमौत मर गये हम ,
आपकी जान के सदके लाख बार करते हैं लोग सब ,
ज़हर देता रहा चारागर बन खबर आपको भी होगी।


अगस्त 28, 2018

डराता हुआ बेरहम समाज ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

     डराता हुआ बेरहम समाज ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

     इक टीस इक दर्द जो सहन नहीं होता अनुभव कर रहा हूं लिखते हुए। सच कहूं समझ नहीं आता बात की शुरुआत कैसे करूं। हम बड़ी बड़ी बातें करते हैं आदर्श नैतिकता और धर्म की। मगर जो दिखाई देता है वो कुछ और ही साबित करता है। शिक्षा के मंदिर अब केवल पैसा बनाने का साधन बन गये हों इतना नहीं है अब तो विद्यालयों में व्यभिचारी अपराध कर रहे हैं। धर्म की आड़ में हर अपराध परवान चढ़ रहा है। सरकार को समाज के पतन की चिंता क्या हो जब खुद नेता सरकार और अधिकारी मनमानी करते हों और हर डरावनी खबर केवल जांच और रपट दर्ज करवाने तक रह जाती है। किसी को फुर्सत ही नहीं जो सोचे ये समाज किस तरफ जा रहा है , कानून का नहीं जंगलराज है। किसी अपराधी को खौफ है ही नहीं कनून का , हो भी कैसे जब नेता अधिकारी खुद उचित अनुचित की बात छोड़ अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हों। और हम तथाकथित सभ्य और आधुनिक शिक्षित लोग हर बात को औपचारिक विरोध जताने या किसी बलात्कार पीड़ित की हत्या होने पर मोमबत्तियां जला जुलूस निकालने और बहरे गूंगे लोगों से इंसाफ की भीख मांगने तक की बात कर घर बैठ अपनी बारी की राह देखते हैं। हर सुबह एक नहीं कितनी डरावनी खबरें सामने आती हैं तो लगता है हमारा समाज इंसानों के जीने के लायक नहीं रहा है। आपने कभी विचार किया है इतिहास लिखने वाले जब किसी युग के इतिहास की खोज करते हैं तो उस वक़्त की हर बात को देखते हैं। तस्वीरों को सामान को उस काल की लिखी हुई कहानियों गीतों नाटकों और अवशेषों को देखते हैं और समझते हैं तब कैसे लोग हुआ करते थे। 
 
             सोचो आज जो घटता है और जैसे हर दिन अराजकता बढ़ती नज़र आती है , जब इस सब की वास्तविकता को समझ कर इतिहासकार लिखेंगे तो हम मूर्ख कायर और जंगली लोग कहलाएंगे। इस समय के टीवी सीरियल की कहानियां देख कर यही लगेगा कि कैसे हम इस से मनोरंजन किया करते थे। इन में हर कोई छल कपट ही नहीं कत्ल तक यूं करता है जैसे इंसान नहीं गाजर मूली है आदमी। क्या यही सच है हमारे घर की सभी महिलाएं आपराधिक कार्यों में पुरुषों को भी मात देती हैं। अस्पताल पुलिस सब को जब चाहे पैसे देकर अपराध में साथ मिला लेती हैं। जिन फिल्मों की आमदनी पर गर्व करते हैं अभिनेता वो फ़िल्में संदेश क्या देती हैं और समाज को किस दिशा में धकेल रही हैं। हम खुद तमाशाई हैं और हम खुद तमाशा भी हैं। क्या इससे अधिक मूर्खता कोई कर सकता है। 
 
                   भौतिक उन्नति किसी काम की नहीं अगर मानसिक और सामजिक तौर पर हम पहले से और पिछड़ते जा रहे हैं। सत्ता पर बैठे लोगों को यही पसंद है कि लोग सही गलत की बात पर चर्चा ही नहीं करें और केवल अपने लाभ की बात पर ध्यान दें। अपने स्वार्थ में हम राजनेताओं की चालों के मोहरे बनकर रह गए हैं। नेता हमें बांटना चाहते हैं लड़वाना भिड़वाना चाहते हैं और हमारी लाशों पर खड़े होकर शासन पाना चाहते हैं। क्या ये हमारे दुश्मन नहीं हैं क्या हमारी भलाई कर सकते हैं ऐसे लोग। हमने खुद अपनी आज़ादी अपने अधिकारों को किनके रहमोकरम पर छोड़ दिया है। हम समझ ही नहीं रहे ये दावानल की आग हम सभी को जला कर राख कर देगी किसी दिन। नेता आग को बुझाते नहीं हैं दूर से खड़े देखते हैं और हवा देने का काम करते हैं। हमारे पूर्वजों ने हमें ये तो नहीं दिया था विरासत में। सद्भावना और भाईचारे वाला सभ्य समाज आज हैवानियत को शर्मसार करता लगता है तो इसका ज़िम्मेदार कोई तो है। सीमा की बात करना व्यर्थ है कोई सीमा पतन की बची कहां है। कोई मसीहा नहीं आएगा बचाने हमें , खुद ही संभलना होगा और बचाना होगा अपने समाज को ताकि अपने बच्चों को हम इक अच्छा समाज देने का कर्तव्य निभा सकें।

         हम समझते हैं बड़ा सा घर हर सुख सुविधा और आराम के साधन बहुत बड़ा बैंक बैलेंस अपनी ख्वाहिशों को पूरा करने को होना हमारी सफलता का सबूत है। मगर इसको हासिल करने को जो खोते हैं उसका पता ही नहीं है। हमारे बाज़ार में उसका मोल कुछ भी नहीं है मगर , अनमोल भी कुछ होता है ये हम जानते ही नहीं हैं। जो बिकता नहीं उसे कोई खरीद नहीं सकता उसकी कोई कीमत नहीं होती , आज कीमत लगती है ये खिलाड़ी कितनी कीमत का , ये अभिनेता कितने में काम करता है , जिसे आप महानायक कहते हैं वो पैसे लेकर झूठ ही बोलता नहीं उन वस्तुओं को बेचकर जिसे खुद कभी उपयोग नहीं करता बल्कि गुमराह करता है गलत राह बताता है। नहीं भाई नायक वो नहीं होते जो सही राह नहीं दिखाते हों , ये तो खुद भटके हुए लोग हैं और हमने इन्हीं को अपना आदर्श बना लिया है ये हमारी मूर्खता का सबसे बड़ा प्रमाण है। जो नेता सत्ता पाने को कुछ भी कर सकते हैं और जिनको सत्ता जाना डराता हो उनको आप मसीहा समझते हैं तो अपने नायक मसीहा और महानता को कितना बौना कर दिया है।

                   आज कोई किसी के घर जाता है तो उसकी शख्सियत को ड्राइंग रूम एलसीडी टीवी के साइज़ और रईसी के साज़ोसामान से आंकता है। ये सब नहीं है तो समझता है हमारे बराबर का नहीं है , ये हमने हमने स्टैंडर्ड रखा हुआ है। किन मूल्यों पर कोई चलता है इसको हम स्टैंडर्ड नहीं मानते इतना घटिया हमारा स्टैंडर्ड है। सादगी से जीना विलासितापूर्ण वस्तुओं को अपनी आदत या ज़रूरत नहीं बनाना लगता है बड़ी बात नहीं है छोटी बात है। कभी ऐसे रहना पड़ा तो , जिनकी आज बातें करते हैं वो तमाम आदर्शवादी लोग इसी तरह से रहते थे और इसी तरह रहना भी चाहते थे। हमने दिखावा और आडंबर को बड़े होने का प्रमाण समझ लिया है जबकि ये बड़े नहीं छोटे होने की बात है , आपकी सोच बड़ी होनी चाहिए। खुद इन बातों को महत्व देकर हम चाहते हैं समाज आदर्शवादी मूल्यों पर चलने वाला हो और भौतिकता की दौड़ में अंधा नहीं हो तो हम दोगले हैं। बबूल बोकर आम खाने की अभिलाषा करते हैं। घरों की मंज़िलें ऊंची हैं इंसानों की इंसानियत नीचे गिरती जा रही है , प्रगति नहीं ये अवनति है। और हमने मंज़ूर किया है और और और नीचे जाना ऊपर उठने को। 

 

अगस्त 27, 2018

हम शर्मिन्दा हैं ( देश के हालात पर ) डॉ लोक सेतिया

     हम शर्मिन्दा हैं ( देश के हालात पर ) डॉ लोक सेतिया 

 किस किसे से शर्मसार हैं। हम कैसे गुनाहगार हैं। करते आज इज़हार हैं। हम सब कसूरवार हैं। 
बापू हम शर्मिंदा हैं। तुम इक विचार थे हमने तुम्हें इश्तिहार बना डाला। तेरी समाधि पर सर झुकाने वाले लोग तेरी बताई राह से विपरीत चलते हैं। तेरे नाम तेरी तस्वीर तेरे चश्में तक को अपने मतलब को इस्तेमाल करते हैं। तुझे कत्ल करने वाले का मंदिर बनवा उसकी पूजा करते हैं लोग और हम अहिंसा की आड़ में कायरता दिखलाते हैं। सादगी से जीने और आखिरी आदमी के आंसू पौंछने की बात क्या देश के सेवक जनता के धन से शाही ढंग से रहते हैं भूखी जनता का लहू पीते हैं। हम सब देखते हैं चुप रहते हैं ऐसे नेताओं को हम देशभक्त कहते हैं। हमें कभी माफ़ मत करना हम अपराधी हैं जो अन्याय के सामने झुक जाते हैं। 
 
     भगतसिंह हम शर्मिंदा हैं। हमने तुम जैसे शहीदों की कुर्बानी को व्यर्थ कर दिया है। हम आज भी गुलामी का बोझ ढोते हैं , अपनी बेबसी पर छुपकर रोते हैं। तुझे भी हमने इक तमगा बना लिया है सीने पर लगाकर आडंबर करते हैं तेरी राह चलने का जबकि हम देश को देना कुछ भी नहीं चाहते और पाना सभी कुछ चाहते हैं। 
 
      नेहरू जी हम शर्मिंदा हैं। जिस लोकतंत्र को तुमने सींचा था उसकी धज्जियां उड़ाने वालों की बात सुनकर हमारा खून नहीं खौलता और हम तालियां बजाते हैं तुम्हारे दिन रात महनत और लगन से खिलाये चमन को बर्बाद करने वालों के सामने हम बेबस हैं। जिन्होंने कुछ भी निर्माण किया नहीं केवल विकास के नाम पर महान नेताओं के नाम का इस्तेमाल ही किया है और बांध कारखाने स्कूल अस्पताल नहीं बनवाये मगर मूर्तियां और झूठी दिखावे की शान पर धन बर्बाद किया है और समझते हैं यही देश का विकास है आज सत्ता पर काबिज़ होकर शांति नहीं अशांति का माहौल बना रहे हैं। 
 
    लाल बहादुर जी हम शर्मिंदा हैं। जय जवान जय किसान की बात याद नहीं किसी को। स्वाभिमान की बात कोई नहीं समझता और विदेशी लोगों के सामने झुके हुए हैं और मुट्ठी भर लोगों को फायदा पहुंचाने का काम बेशर्मी से करने वाले ईमानदारी की बात करते है। 
 
    देश की आज़ादी की जंग के वीरो हम शर्मसार है क्योंकि हम आज़ादी की रक्षा करने में नाकाम रहे हैं और राजनेताओं अधिकारीयों की मनमानी के सामने नतमस्तक हैं। अपने अधिकार नहीं छीनते हम बस भीख मांगते हैं सरकारों से। 
 
        देश के महान साधु संतो , हम शर्मिंदा हैं। हमने आपकी सभी शिक्षाओं को भुला दिया है और सच्चाई की राह पर निडर होकर नहीं चलते हैं। आचरण की बात नहीं भौतिकता की अंधी दौड़ में समाज को रसातल में ले जाने का कार्य कर रहे हैं। सब दार्शिनकों ज्ञानीजनों की सीख को दरकिनार कर निम्न स्तर की चर्चा और घटिया मनोरंजन हमारा ध्येय बन गए हैं। धर्म को मुखौटे की तरह उपयोग करते हैं धार्मिकता कहीं नहीं बची है। किस किस का नाम लिया जाये किस किस धर्मग्रंथ की बात की जाये , सबको हमने केवल सर झुकाने और पूजा करने को बेजान वस्तु बना दिया है। समझना क्या हम कभी पढ़ते तक नहीं उन आदर्श की किताबों को। 
 
     हमारे महान आदर्श पूर्वजो हम शर्मिंदा हैं।  हम ने ऐसा समाज बनने दिया है जिस में समानता नहीं है , मानवता नहीं है , दया भाव नहीं है। केवल अहंकार और स्वार्थ हर किसी को महत्वपूर्ण लगते हैं। हम किस बात पर गर्व कर सकते हैं कुछ भी ऐसा नहीं दिखाई देता। हम केवल शर्मिन्दा हैं। 
 

 

अगस्त 25, 2018

निराशा की राजनीति कब तक ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

      निराशा की राजनीति कब तक ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

       आज खुले दिल की बात , सबसे बड़ी दौलत कोई किसी को जो दे सकता है वो है आशा। आज़ादी आशावादी लोगों का सपना थी जो साहस से सच किया तमाम लोगों ने। तब सभी आज़ादी के दीवाने यही कहते थे सोचते थे और यकीन करते थे कि भले हम अपने सामने जीवन काल में नहीं भी देख पायें देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होना ही है। आजकल के नेता झूठे वादे देते हैं और अब तो निराशा बांटते हैं ये जतला कर कि वो देश से नहीं बल्कि देश उन पर निर्भर है। शायद देश के साथ इस से बड़ा अपराध कोई नहीं हो सकता कि आप देशभक्ति से अधिक महत्व व्यक्तिपूजा को देने लगो। कोई भी नेता कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जिस के बिना देश का काम काज या सरकार नहीं चल सकती। इस सोच में केवल निराशा छुपी हुई है जो कुछ लोग खुद भी सोचते हैं और औरों को भी डराना चाहते हैं कि किसी नेता का कोई विकल्प नहीं है। देश की सवासौ करोड़ जनता और संविधान के साथ ये अनुचित बात है। कितने नेता आये गये मगर देश कायम रहा और हमेशा रहेगा। चाटुकारिता की भी सीमा होती है और ऐसी चाटुकारिता देश हित के विरुद्ध है। अगर आप वास्तव में देश के लिए मुहब्बत रखते हैं दिलों में तो सबसे पहले आशावादी नज़रिया कायम करें कि चाहे जो भी हो देश फले फूले और आगे बढ़ता रहेगा। निराशावादिता से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता है। आप ने कभी महसूस किया है देश भक्ति के सभी गीत लोगों में उम्मीद जगाते हैं इक ऊर्जा का संचार करते हैं। हम सभी जीवन में कठिनाइयों का सामना करते हैं केवल आशा के भरोसे कि हम इन से बाहर निकल सकते हैं। मगर आज कुछ लोगों की हालत अंधे कुंवे में बंद ऐसे लोगों की तरह है जो शायर कैफ़ी आज़मी की नज़्म में आज़ादी चाहिए रौशनी चाहिए के नारे लगाते रहते हैं मगर जब उनको बाहर निकाला जाता है तो वापस अंधे कुंवे में छलांग लगा देते हैं और दोबारा वही नारे लगाने लगते हैं। ऐसे निराशावादी लोग वास्तव में कोई कोशिश ही नहीं करते हैं बस शोर मचाते हैं। कुछ लोग समझते हैं उनकी चमक बढ़ेगी अगर बाकी लोगों की चमक को धुंधला कर दिया जाये। घर परिवार में भी कोई आदमी ऐसा होता है जो भाई पिता दादा सब की महनत को नकारता है ऐसा कहता है अपने किया क्या है सब मैंने किया है। मगर ये भूल जाता है खुद उसको इस काबिल किसने बनाया है। और जो उसे मिला उसी से कुछ कर दिखाना है मगर ऐसे लोग करने से ज़्यादा जो किया गया उसकी कमियां बताने में समय बर्बाद करते हैं और कर नहीं पाते खुद कुछ भी। करना कर दिखाना और बात है और करूंगा की बातें करना दूसरी बात।

         विकल्पहीनता आदर्श दशा नहीं हो सकती , लोग भगवान तक बदलने का साहस रखते हैं। कोई ज़बरदस्ती है कि उसी को वरमाला डालनी होगी। आप क्या गुंडे बदमाश की तरह किसी लड़की को डरा कर हासिल करना चाहते हैं कि मुझे नहीं मिली तो किसी और की नहीं होने दूंगा। तेज़ाब से जलाने वाले प्यार नहीं किया करते हैं। जिन लोगों ने बनाया है उन्हीं को डरा रहे हो , हार के डर से घबरा रहे हो। नासमझ खुद हो सबको समझा रहे हो , जिधर नहीं जाते उधर जा रहे हो। उलझनों को और उलझा रहे हो , खुद उलझे हुए आप और सबकी उलझन बढ़ा रहे हो। कुछ खबर है कहां से आ रहे हो कोई खबर है कहां जा रहे हो। कैसे समझाएं क्या खो रहे हो क्या पा रहे हो। खुद अपने साये को सुबह शाम देख अपना कद बढ़ता समझ धोखा खा रहे हो। खुद अपने में सिमटते दोपहर को देख साया भरमा रहे हो। 
 
                  अपने कभी ग्रामोफोन पर काले तवे पर घूमती सुई से संगीत सुना है , कभी कभी जब सुई किसी एक जगह अटक जाती थी तो संगीत नहीं शोर पैदा होता था। आजकल कुछ उसी तरह का शोर है जो देश की जनता को परेशान किये है। देश को छोड़ किसी नेता को इतना महत्व देने वाले पहले भी होते रहे हैं , मगर  उनके रहने नहीं रहने से देश को कोई फर्क नहीं पड़ा न पड़ना चाहिए। वास्तविक देश भक्त कभी ऐसा नहीं मानते कि उनके बिना देश का क्या होगा , उल्टा समझना ये चाहिए कि देश है तो वो हैं। आप किसी दल से संबंध रखते हों या आम नागरिक हों जिसे दलगत राजनीति से कोई मतलब नहीं , देश के लिए आपके दिल में जो भावना रहती है वतन से प्यार की वो सबसे बढ़कर है। चाहे जो भी हो अगर सत्ता की राजनीति में लोगों को आशा की बजाय इक डर इक दहशत और निराशा देता है और ये जताता है कि सिवा उसके शायद कोई अनहोनी हो सकती है तो उसको समझाना होगा देश अगर समंदर है तो वो इक तिनके की हैसियत रखता है। नायक वही होते हैं जो देश को निराशा नहीं आशा की उम्मीद की राह चलने को कहते हैं। 
 
बदल जाये अगर माली , चमन होता नहीं खाली ,
बहारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आएंगी। 
 
अंधेरे क्या उजाले क्या , न ये अपने न वो अपने ,
तेरे काम आएंगे प्यारे , तेरे अरमां तेरे सपने ,
ज़माना तुझ से हो बरहम , न आएं राह में मौसम ,
बहारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आएंगी। 
 
थकन कैसे घुटन कैसी , चल अपनी धुन में दीवाने ,
खिला ले फूल कांटों में , सजा ले अपने वीराने,
हवाएं आग भड़काएं , फ़िज़ाएं ज़हर बरसाएं ,
बहारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आएंगी। 
 

 




अगस्त 24, 2018

हम तो मर के भी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

            हम तो मर के भी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

        ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं , मैं तो मर के भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा। 

   कहते तो यही हैं ज्ञानीजन कि बाकी सभी जीव जंतु पशु पक्षी मरने के बाद भी काम आते हैं केवल आदमी ही है जो किसी काम नहीं आता मरने के बाद। मगर ऐसा नहीं है आदमी का बदन किसी काम नहीं आता हो बेशक मगर आदमी का नाम बहुत लोगों के काम आता है। कई राजनीतिक दल ऐसे ही बाप दादा के नाम को भुनाने में लगे हुए हैं बात केवल गांधी की ही नहीं है। ये और बात है गांधी के नाम की ज़रूरत आज की सरकार को भी पड़ गई जो किसी ने सोचा भी नहीं था। ये राजनीति है और यहां हर वो चीज़ काम आती है जो फायदेमंद लगती है। नेताओं के लिए इंसान और सामान में कोई अंतर नहीं है सब बेचते हैं नाम भी बदनामी भी। आज फिर इतिहास को दोहराने की बात हो रही है। राजनीतिक दल में गंभीर चिंतन जारी है क्या यही अवसर है उस नेता की मौत से चुनावी नैया पार लग सकती है। पहले जिन दल वालों ने ऐसा हासिल किया अपने नेता की मौत से जनता की भावनाओं को उभार कर चुनाव में जीते उनकी बात अलग थी उनकी मौत स्वाभाविक नहीं थी और उनकी हत्या को शहीद बताकर उपयोग किया जा सकता था। अब तो जिनकी मौत हुई है कुछ दिन पहले तक उनको और उनके साथियों को राजनीति के हाशिये पर रखा गया था। लोग भावुक हैं मगर नासमझ नहीं हैं। काश पहले पता होता अभी उनकी शोहरत इतनी है तो दो चार योजनायें ही उनके भी नाम कर देते। मगर जो लोग भूल गये थे किसके लगाये पेड़ की छांव में बैठे उस पर लगे फल खा रहे हैं उनको फिर किसी मुद्दे की ज़रूरत है इतना अकाल है। 
 
                 शायद लोग हैरान होंगे कि जब उनकी मौत के बाद श्र्द्धासुमन अर्पित करने को उनकी फोटो की ज़रूरत थी तो किसी भी तस्वीर बेचने वाले के पास उनकी तस्वीर नहीं मिली और गूगल से डाउनलोड कर फ्लेक्स वाले से बनवानी पड़ी विनती कर के। बाज़ार में ऐसे ऐसों और कैसे केसों की तस्वीरें थी क्या बताऊं आपको हैरानी होगी। मगर कोई फर्क नहीं पड़ता है जिन की तस्वीर लोगों के दिलों में बसी हुई हो उनकी फोटो इश्तिहारों पर छपवाने की ज़रूरत नहीं होती।  याद है कभी उनकी भी फोटो हर जगह दिखाई देती थी मगर जब सत्ता नहीं रही तो दल कोई भी हो उनकी तस्वीर कहीं नहीं दिखाई दी। यही ऐसे नेता थे जो जब सत्ता में आये तो जिस जगह पिछले राजनेता की तस्वीर लगी हुई थी दिखाई नहीं दी तो दोबारा लगवाई थी। यही अंतर होता है असली नायक और बनावटी नायक का। आज फिर से उनकी फोटो को बनवाने की बात सोची जाने लगी है मगर मगर दुविधा है उनकी राह अलग थी आपका रास्ता और है। कहीं दांव उल्टा नहीं पड़ जाये और लोग तुलना करने लगें तो आप उनके सामने इक पासंग भर भी नहीं साबित होंगे। 
 
           सब से बड़ी समस्या आपकी यही है कि कोई भी नेता किसी भी दल में आपके बराबर का हो आपको मंज़ूर नहीं है तो अपने ही दल में जिस नेता को आप ने भुलाना चाहा बुरी याद की तरह उसी को अपने से ऊंचा स्थान देना कैसे सहन होगा। ज़रूरत में बाप बनाने की बात है मगर बाप है कहने से लोग आपको उनका बेटा मान भी लेंगें आपको पता नहीं। 14 साल बाद राम बनवास से वापस आये थे तो लोग दीपावली मना रहे थे , सत्ता से बाहर होने के ठीक 14 साल बाद भी उनकी शोहरत कायम है देख कर विचार तो आया होगा।  तेरा क्या होगा कालिया , लोग याद रखेंगे इतने प्यार से क्या ? जो लोग वास्तव में देश जनता की भलाई को दलगत स्वार्थ से ऊपर रखते हैं उन्हें लोग सदियों तक याद रखते हैं प्यार से।  उनके लिए किसी शायर का इक शेर याद आता है :-

      माना कि चमन को न गुलज़ार कर सके , कुछ खार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम ।


 


कौन कितना गरीब है , गरीब कितना अमीर है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      कौन कितना गरीब है , गरीब कितना अमीर है ( व्यंग्य )

                                       डॉ लोक सेतिया 

     सच कोई नहीं जनता सच सभी जानते हैं। राज़ कुछ भी नहीं है राज़ हर बात में छुपा है। सवाल में जवाब है और हर जवाब खुद इक सवाल है। इक ने कहा था दिल्ली से एक रुपया जाता है चलते चलते घिस कर पंद्रह पैसे गांव तक पहुंचता है। तब सभी ने मान लिया सरकार है झूठ थोड़ा बोलती है , किसी को पंद्रह पैसे दिखाई नहीं दिए किसी को रुपया नज़र नहीं आया। इतने सालों बाद रूपये की कीमत कुछ भी नहीं है अब भिखारी भी दस पांच रूपये दे दो चाय पीनी है रोटी खानी है। दस रूपये में चाय मिल जाये इतना कम है , चाय वाला सत्ता में है क्या शान है क्या विदेशी सैर है क्या पोशाक है , फिर भी कहता है गरीब है उसका अपना कुछ भी नहीं है। अब उसी ने बताया है कि सौ पैसे पहुंचते हैं। असलियत कोई नहीं जानता जुमले दोनों खूब हैं अच्छे दिन की तरह। वास्तव में रुपया सौ पैसे नीचे पहुंचता तो बीच वालों की हालत खराब हो गई होती सब सरकारी लोग भुखमरी से मर जाते भला वेतन से जी सकता है कोई। इक अर्थ शास्त्री से सवाल किया आप तो बजट बनाते हैं आप ही बताओ गरीब कौन है। 
 
                 हाथ उठाकर बोले रुको , आमदनी कम होना गरीबी की निशानी नहीं है। आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया मतलब घाटे में जो भी हो असली गरीब वही है। सरकार का बजट हमेशा घाटे का रहता है तो देश में सबसे गरीब सरकार खुद है। गरीबों में पहला नाम यही लिख लो। बजट का मतलब होता है सरकार को अपने ताम झाम पर शानोशौकत पर शाही ठाठबाठ पर कितना धन चाहिए और किस किस तरह से जनता से वसूल किया जा सकता है। ये वही है जो खुद कुछ भी नहीं कमाता है उसके अधीन जो जो भी है सब घाटे में होता है जबकि उसी काम को करते हुए लोग खूब आमदनी करते हैं। डाकू लोग कमाई नहीं करते औरों की कमाई पर अपना अधिकार समझते हैं मगर उनको कानून अपराधी मानता है।  सरकार के पास यही लूटने का अधिकार है जिसे बजट बनाते समय उपयोग करती है। आपको सरकार को देने को कितना कमाना है सरकार बताती है कैसे कमाना है कभी नहीं बताती है। सरकारी सच यही है कि जितना लेती है उसका एक चौथाई भी जनता को वापस नहीं करती है। हर साल इक रेखा बना कर दिखलाते हैं रुपया आएगा किस किस तरह से और खर्च किस किस जगह किया जायेगा। 75 पैसे तो सरकारी कर्मचारी अधिकारी नेता पुलिस और देश की रक्षा पर खर्च होता है 25 पैसे जनता की खातिर होते हैं मगर अक्सर वो भी पूरे खर्च नहीं होते हैं। मार्च महीने में हर विभाग में इक लूट मची होती है बकाया बजट खत्म करना है और अगली बार बढ़वाना भी है। 
 
                   सर्वेक्षण की बात मत पूछो , गरीब कौन है सरकार ने पहचान करने को कहा है। मामला उतना सरल नहीं है , हर रेखा छोटी लगती है अगर सामने उससे बड़ी रेखा बना दी जाये। बचपन से हम यही करते आये हैं कैसे बिना मिटाये किसी रेखा को छोटी कर सकते हैं , उसके सामने बड़ी रेखा बनाकर आसानी से किया जा सकता है ये काम जो असंभव लगता है। हर अमीर अपने से अमीर से गरीब है , पुराने लोग अपनी अमीरी को नज़र नहीं लगने देते थे और करोड़पति अपने बेटे का नाम गरीबदास रख लेते थे और जो फटीचर होते उनके बेटे का नाम अमीर चंद होता था। अमीर चंद गरीब और गरीब दास रईस क्या कमाल है। सरकारी फार्म भरना है ताकि साबित किया जा सके किसे अनुदान की ज़रूरत है। दौलतराम बही खाता दिखलाता है , कोठी कार बंगला दुकानें सब हैं मगर रोने लगे मंदे की मार ने बेहाल किया हुआ है। सरकारी कर और बैंकों का क़र्ज़ भरते भरते जान निकल जायेगी। काश हज़ारों करोड़ का क़र्ज़ होता तो विदेश भाग जाते। समय पर राजनीति में चले जाते तो कम से कम अपने जेब से तो इक पाई खर्च नहीं करना पड़ता। हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा होता। कारोबार में रात दिन सब करने के बाद भी तिजोरी भरती ही नहीं सच बताएं तो बेहद गरीब हैं , सरकार कोई मदद करे तो बच सकते हैं। गरीबों में नाम लिख लो जी। 
 
              सरकारी कर्मचारी से हाल पूछा तो बिफर उठे। तबादला ऐसी सीट पर कर दिया है कि गुज़ारा ही नहीं होता , नाम भर को ऊपरी कमाई है और डर बना रहता है। दफ्तर की दराज से मिले पैसे किस के हैं कैसे बताएं और कहां रखते छुपाकर। मलाईदार सीट पर नेताओं के ख़ास लोग हैं और हर दिन उन्हीं को और पैसा मिलता है किसी तरह से खर्च करने को। विभाग पुलिस का और रोज़ मनोरंजन नाच गाना तमाशे करवाते हैं एनजीओ की आड़ में घर भरते हैं। सरकार खुद किसी अपराधी के चरण में सर झुकाती है और उसके अनुचित अवैध निर्माण को इक नियम बनाकर वैध कर देती है। मगर वो बाबा लोग कहते हैं उनके नाम कुछ भी नहीं है। गरीबी में ऐसी शान क्या बात है। पता होता तो सरकारी नौकरी नहीं उपदेश देने या योग सिखाने का काम करते नहीं तो चाय की दुकान ही खोल लेते। ज़माना बदल गया है सब खुद को गरीब साबित करना चाहते हैं। सबको भीख चाहिए , भिखारी सारी दुनिया दाता एक राम नहीं आजकल दाता सरकार है जो वास्तव में सबसे बड़ी भिखारी है। उसको भीख विश्व बैंक आई एम एफ और जाने किस किस से चाहिए , जबकि उनका गणित और भी उल्टा है उनकी शर्तों में देश आज़ाद होकर भी गुलाम है। कहने को बड़ों की बातों को याद करते हैं मगर जो शिक्षा बड़े बजुर्ग सिखाते मर गये उस पर अमल कोई नहीं करता है। जितनी चादर उतने पैर फैलाओ और इज़्ज़त से जीना है तो उधार लेकर मत शान दिखाओ। गरीबी की रेखा तुम ही समझाओ , नीचे हैं लोग कुछ तुम ही नीचे चली जाओ।

अगस्त 23, 2018

ये कैसी आज़ादी है ( विडंबना की बात ) डॉ लोक सेतिया

        ये कैसी आज़ादी है ( विडंबना की बात ) डॉ लोक सेतिया

                              जनता को लताड़ने वालो 

      आपने देखा इन सब को कैसे रुआब से डांटते हैं लताड़ लगाते हैं गरीबों को। आज से नहीं सदियों से ये चला आ रहा है बेबसी जुर्म है हादिसा जुर्म है ज़िंदगी तेरी इक इक अदा जुर्म है। कोई अभिनेता है जो विज्ञापन करता है खूब पैसा कमाता है मगर यमराज बनकर समझाता कम धमकाता अधिक है कि एक करोड़ का टर्म इंशोरेंस इतने में करवाते। भाई आपको उनके घर के लोगों से इतनी ही सहनुभूति है तो मत आते। कोई और था जो स्वच्छता की बात पर अपमानित करता था गांव वालों को सड़क पर चलने वालों को।  इतनी चिंता है तो सरकार नहीं बनवाती तो आप तो दौलमंद देश भक्त और सत्य की बात करते हैं बनवाते हर जगह शौचालय अदि। अभी तक कितनों को करोड़पति बना चुके हैं तथाकथित महानायक जो इस बार दूसरे ढंग से बुलाते हैं , लोग आकर ले गये लूट कर आप कब तक सोचते रहोगे। आपको पैसे कमाने हैं कमाओ कौन रोकता है मगर ऐसी भाषा बोलने का अधिकार आपको नहीं है। इस देश में सब आपकी सोच वाले नहीं हैं कि पैसे कमाने को कुछ भी करो। झूठ बोलने से लेकर सत्ता की भाषा बोलने तक और बाज़ार की भाषा बोलने तक। ऐसी महानता आपको मुबारिक हो। इन सावन के अंधों को कुछ भी दिखाई नहीं देता सिवा सरकारी झूठ के। इसी सरकार ने पहले इक रूपये महीना में जनता का बीमा किया था , कोई बताये किसको बीमा राशि का भुगतान हुआ। जब खुद बीमा करवाने पर तमाम कागज़ पास होने पर भी बीमा कंपनियां भुगतान नहीं करतीं तो सरकारी बीमा का भुगतान कैसे करेंगे। कोई नाम पता नहीं बस लाखों लोगों की राशि सरकारी खज़ाने से मिल गई। किसान की फसल का भी बीमा करने की बात कही थी , किसान आत्महत्या करते हैं बदहाली में अगर बीमा राशि मिलती तो क्या ऐसा होता। अभी इक नई योजना स्वास्थ्य बीमा की शुरू की है पचास रूपये सालाना एक परिवार को अर्थात 10 से 15 रूपये में कौन सी कंपनी देगी भुगतान। तरीका बदल गया है लूट का। वास्तव में करना है तो सभी की शिक्षा और स्वास्थ्य सरकार अपने कर्तव्य समझ उपलब्ध करवाती तो जनता की आधी परेशानियां हल हो जाती। लोगों को उनके अधिकार मिलने चाहिएं खैरात नहीं। 
 

        चलके तो गैर के कदमों से कहीं के न रहे , अपने पैरों पे अगर चलते तो चलते रहते। 

        नईम अख्तर बुरहानपुरी जी का शेर ऐसे तमाम लोगों के लिए है जो सत्ता के तलवे चाटकर राज्य सभा पहुंच कर खामोश हो जाते हैं या जो टीवी चैनल वाले सरकारी विज्ञापनों की बैसाखियां लेकर दौड़ने की बात करते हैं। हम महनतकश लोग थोड़े में गुज़ारा करते हैं मगर मुफ्त में कुछ नहीं लेते हैं। ये जो खुद को धनवान कहते हैं उन्हीं की भूख बढ़ती जाती है जितनी दौलत जमा होती जाये। जिन से आपकी आमदनी की पाई पाई आती है उन्हीं को आप इस तरह अपमानित करते हैं , बिना सोचे समझे। दाता कौन है और भिखारी कौन। भीख केवल गरीब लोग नहीं मांगते मज़बूरी में , भिखारी तो बड़े बड़े अमीर लोग भी हैं और उन्हें भीख नहीं मिले तो उनका गुज़ारा ही नहीं होता ये जाँनिसार अख्तर जी ने कहा था इन्हीं लोगों के लिए।  जनता को लताड़ने की आदत बहुत बुरी है धनवानों की नेताओं की सरकारों की और इन कलाकारों की तो और भी अनुचित है क्योंकि इनकी शानोशौकत इन्हीं आम लोगों के दम पर है। जिस दिन इन सबको जो खुद को आम नहीं ख़ास मानते हैं समझ आएगा उनकी औकात देश के करोड़ों आम नागरिकों के बिना कुछ भी नहीं है उस दिन अपने कहे हर शब्द पर शर्मिंदा होकर माफ़ी मांगेगे जनता से। जनता का दिल इनसे बड़ा है माफ़ कर देगी इनकी सभी खताओं को। 
 
                  टीवी शो पर देश भक्ति की बात करना और फिल्मों में किरदार निभाना आसान है , असली देश से प्यार देश की जनता से मुहब्बत करना है उसे डांटना फटकार लगाना तो गुनाह है। इक सच हर अर्थ शास्त्री जानता है कि कुछ लोगों के पास बहुत अधिक है इसी कारण अधिकतर के पास ज़रूरत लायक भी नहीं है। मगर जो नेता खुद अपने आप पर ही बेतहाशा खर्च कर देश पर बोझ बने हुए हैं वो कभी देश की जनता को समानता के हक नहीं देना चाहेंगे। उनको जिनसे चंदा या घूस मिलती है उन्हीं को लाभ पहुंचाने की योजनाएं बनानी होती हैं। वास्तविक आज़ादी अभी बहुत दूर है , अंधियारा घना है और सूरज के सिंहासन पर अंधेरों का डेरा है।

     


अगस्त 22, 2018

शुरुआत की जिसने बताओ ( बेबात की बात ) डॉ लोक सेतिया

  शुरुआत की जिसने बताओ ( बेबात की बात ) डॉ लोक सेतिया 

 सरकार ने व्हाट्सएप्प वालों से कहा है पहला संदेश किसने भेजा इसको तलाश करने का उपाय करो। क्या पहला पत्थर किसने मारा वही गुनहगार है उसके बाद जो लोग आंखें बंद कर संदेश को आगे भेजते रहे वो बेचारे नासमझ भोले भाले लोग थे। कोई गाली बकता है तो आप उसकी गाली का विरोध नहीं करते और लोगों को गाली बकने लगते हैं। गाली देना गलत नहीं है गलती उसकी है जिसने उस गाली का अविष्कार किया था। अगर यही बात है तो शराबी को कोई सज़ा क्यों मिले सज़ा तो सरकार को मिलनी चाहिए जो अपनी कमाई की खातिर शराब बनाने और बेचने को ही नहीं शराबखाना खुलवाने को लाइसेंस देती है। सरकार की बातों से अक्सर लगता है अपने कर्तव्य को नहीं पालन करने का ठीकरा किसी और पर फोड़ना चाहती है। खुद नेता लोग क्या करते है। 

       इस दौरे सियासत का इतना सा फ़साना है , बस्ती भी जलानी है मातम भी मनाना है।

 आप जब कहते हैं झूठ बोलते हैं जनाब तो पहले आपको बताना होगा मुझसे पहले सबसे पहला झूठ जिसने बोला था उसका पता लगाओ , असली गुनहगार वही है। भीड़ ने आगजनी की किसी को मारा पीटा या जान से मार दिया तो पुलिस को पहली तीली जलाने वाले को पकड़ोगे या माचिस बनाने वाले को। कोई पुल गिर गया तो पकड़ना उस नेता को होगा जिसने उसकी नींव रखी थी , यूं भी नेता नींव रखते हैं और भूल जाते हैं , हमारे मुख्यमंत्री जी बिना कोई विमान बिना कोई लाइसेंस मिले हवाई अड्डे का उदघाटन करते हैं। कल जो भी अंजाम होगा कसूरवार वही होगा जिसने शुरुआत की थी बगैर साधन उपलब्ध करवाए मुहूर्त करने का।


   आप ये मत पूछो ये जो सोशल मीडिया को अपने राजनीतिक इस्तेमाल को दुरूपयोग करने की शुरुआत किस ने की थी , नाम आएगा तुम्हारा ये कहानी फिर सही। दिल के लुटने का सबब पूछो न सब के सामने। राज़ की बात है राज़ ही रहने दो , सारे राज़ खुलने लगे तो अंजाम क्या होगा खुदा जाने। हमको किसके ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही। इक और गीत आपको पसंद आएगा। ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाये तो अच्छा , इस रात की तकदीर संवर जाये तो अच्छा। वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है , इल्ज़ाम किसी और के सर जाये तो अच्छा। आपको यूं भी हर बात का दोष पहले वाले शासकों को मढ़ना पसंद है। आपने भी देश की जनता के साथ कोई वफ़ा तो नहीं की है फिर भी बेवफाई की सज़ा कोई और पाए तो क्या बुरा है।

     नफरत की शुरुआत किसने की थी , हिंसा की शुरुआत गांधी ने की थी या गोडसे ने इसकी बात मत पूछो , बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। शायद उस राज्य को भी तलाश करना मुश्किल नहीं जहां से नफरत की तथाकथित प्रयोगशाला शुरू की गई थी। राख में दबी पड़ी हैं कितनी ही चिंगारियां , हवा मत दो वर्ना शोला बनकर कहीं अपने ही दामन को न जला बैठो। सरकार और पुलिस को अपराध को रोकना है केवल मुखबिर से सुराग देने की साज़िश नहीं करनी है ताकि जब ज़रूरत हो उसे भी उपयोग किया जा सके। अपनी हर नाकामी के लिए किसी दूसरे को दोष देना किसी काम का नहीं। काम करना ज़रूरी है जो सरकार काम करने में असफल रहती है उसे रहने का हक नहीं होता है।

अगस्त 21, 2018

बेचा नहीं गिरवी रखा है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

बेचा नहीं गिरवी रखा है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

     ज़मीर मरा भी नहीं ज़मीर ज़िंदा भी नहीं है। टीवी चैनल वालों ने अपना ज़मीर सुरक्षित रख छोड़ा है किसी न किसी दल के पास किसी न किसी सरकार के पास। अख़बार वालों ने भी किराये पर उठा रखा है ज़मीर अपना रोज़ किरायेदार बदलते हैं रोज़ किराया बढ़ता है। विज्ञापन छापते छापते खुद ही इश्तिहार बन गये हैं फिर भी आईना दिखाने की बात करते हैं खुद अपनी सूरत को नहीं देखते कभी भी। ये बात सोची तो रिश्तों को लेकर थी मगर इस पर भी सही साबित होती है। आशिक़ महबूबा में थोड़ा फासला रहना अच्छा है चेहरा सुंदर लगता है मगर पति पत्नी बनकर जब बहुत करीब से देखते हैं तो हर चेहरे पर छोटे से छोटा तिल भी नज़र आता है , किसी भी चेहरे को ज़ूम कर के क्लोज़ अप में देखोगे तो विश्व सुंदरी भी अजीब लगेगी। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। आजकल लोग परेशान हैं देख कर कि समाचार वाले टीवी चैनल बेखबर हैं कि हम क्या से क्या हो गए हैं और क्या होते जा रहे हैं। पैसे की चाहत की अंधी दौड़ में अपना ईमान तक गवा बैठे हैं और समझते हैं कितना आगे बढ़ गये हैं। दोहा :-

          आगे कितना बढ़ गया अब देखो इंसान , दो पैसे में बेचता ये अपना ईमान

           1                 संपादक जी 

संपादक जी मेरे दिये समाचार को पढ़ रहे थे और मैं सोच रहा था कि ये सब क्या हो रहा है। समाज किस दिशा को जा रहा है , आखिर कहीं तो कोई सीमा होनी चाहिये। नैतिक मूल्यों का अभी और कितना ह्रास होना बाकी है। "शाबाश अरुण" संपादक जी उत्साह पूर्वक चीखे तो मेरी तन्द्रा भंग हो गई , "धन्यवाद श्रीमान जी " मैं इतना ही कह सका। उनहोंने चपरासी को चाय लाने को कहा व फिर मेरी तरफ देख कर बोले "तुम वास्तव में कमाल के आदमी हो , क्या खबर लाये हो खोजकर आज , कल फ्रंट पेज के शीर्षक से तहलका मचा देगी ये स्टोरी। " मुझे चुप देख कर पूछने लगे " क्या थक गये हो " मैंने कहा कि नहीं ऐसी बात नहीं है। तब उनहोंने जैसे आदेश दिया , अभी बहुत काम करना है तुम्हें , किसी दूसरे अख़बार को भनक लगे उससे पहले और जानकारी एकत्र करनी है। इधर उधर से जो भी जैसे भी हासिल हो पता लगाओ , ये टॉपिक बहुत गर्म है इसपर कई संपादकीय लिखने होंगे आने वाले दिनों में। एक तो कल के अंक में लगाना चाहता हूं , थोड़ा मसाला और ढूंढ लाओ तो मज़ा आ जाये। " सम्पादक जी को जोश आ गया था और मैं समझ नहीं पा रहा था कि जिस खबर से मेरा अंतर रोने को हो रहा है उस से वे ऐसे उत्साहित हैं जैसे कोई खज़ाना ही मिल गया है। कल अख़बार में इनका संपादकीय लेख पढ़ कर पाठक सोचेंगे कि ये बात सुनकर बहुत रोये होंगे संपादक जी। कितनी अजीब बात है जो आज ठहाके लगा रहा है वो कल अखबार में दर्द से बेहाल हुआ दिखाई देगा। चाय कब की आ गई थी और ठंडी हो चुकी थी , मैंने उसे पानी की तरह पिया और इजाज़त लेकर उनके केबिन से बाहर आ गया था। मुझे याद नहीं संपादक जी क्या क्या कहते रहे थे , लेकिन उनका इस दर्द भरी बात पर यूं चहकना मुझे बेहद खल रहा था। उनके लेखों को पढ़कर जो छवि मेरे मन में बन गई थी वो टूट चुकी थी।
 
                  मैं भी इस बारे और जानकारी हासिल करना चाहता था , संपादक जी के आदेश से अधिक अपने मन कि उलझन को मिटाने के लिये। शाम को कई बातें मालूम करने के बाद जब दफ्तर पहुंचा तो संदेश मिला कि संपादक जी ने घर पर बुलाया है। जाना ही था पत्रकार होना भी क्या काम है। उनको भी मेरा बेसब्री से इंतज़ार था , पूरी जानकारी लेने के बाद कहने लगे अब यही कांड कई दिन तक ख़बरों में , चर्चा में छाया रहेगा। ये सुन उनकी श्रीमती जी बोली थी इससे क्या फर्क पड़ता है। उनका जवाब था , बहुत फर्क पड़ता है , हम अख़बार वालों को ही नहीं तमाम लिखने वालों को ऐसा विषय कहां रोज़ रोज़ मिलता है। देखना इसी पर कितने लोग लिख लिख कर बहुत नाम कमा लेंगे और कुछ पैसे भी। इस जैसी खबर से ही अख़बार की बिक्री बढ़ती है , जब अख़बार का प्रसार बढ़ेगा तभी तो विज्ञापन मिलेंगे।  देखो ये अरुण जो आज इस खबर से उदास लग रहा है , जब कल इसके नाम से ये स्टोरी छपेगी तो एक अनजान लड़का नाम वाला बन जायेगा। अभी इसको ये भी नहीं समझ कि इसकी नौकरी इन ख़बरों के दम पर ही है , कल ये भी जान जायेगा अपने नाम की कीमत कैसे वसूल सकता है। मैं ये सब चुपचाप सुनता रहा था और वापस चला आया था।

                अगली सुबह खबर के साथ ही मुखपृष्ठ पर संपादक जी का लेख छपा था :: " घटना ने सतब्ध कर दिया और कुछ भी कहना कठिन है ::::  :  " मुझे बेकार लगा इससे आगे कुछ भी पड़ना , और मैंने अख़बार को मेज़ पर पटक दिया था। मैं नहीं जानता था कि साथ की मेज़ पर बैठे सह संपादक शर्मा जी का ध्यान मेरी तरफ है। शर्मा जी पूछने लगे , अरुण क्या हुआ सब कुशल मंगल तो है , खोये खोये से लग रहे हो आज। मैंने कहा शर्मा जी कोई बात नहीं बस आज की इस खबर के बारे सोच रहा था। और नहीं चाहते हुए भी मैं कल के संपादक जी के व्यवहार की बात कह ही गया। शर्मा जी मुस्कुरा दिये और कहने लगे अरुण तुमने गीता पढ़ी हो या नहीं , आज मैं तुम्हें कुछ उसी तरह का ज्ञान देने जा रहा हूं , जैसा उसमें श्रीकृष्ण जी ने दिया है अर्जुन को। अपना खास अंदाज़ में मेज़ पर बैठ गये थे किसी महात्मा की तरह। बोले :"देखो अरुण किसी पुलिस वाले के पास जब क़त्ल का केस आता है तो वो ज़रा भी विचलित नहीं होता है , और जिसका क़त्ल हुआ उसी के परिवार के लोगों से हर तरह के सवाल करने के साथ , चाय पानी और कई साहूलियात मांगने से गुरेज़ नहीं करता। कोई इस पर ऐतराज़ करे तो कहता है आप कब हमें शादी ब्याह पर बुलाते हैं। इसी तरह वकील झगड़ा करके आये मुवकिल से सहानुभूती नहीं जतला सकता , क्योंकि उसको फीस लेनी है मुकदमा लड़ने की। जब किसी मरीज़ की हालत चिंताजनक हो और बचने की उम्मीद कम हो तब डॉक्टर की फीस और भी बढ़ जाती है। पुलिस वाले , वकील और डॉक्टर दुआ मांगते हैं कि ऐसे लोग रोज़ आयें बार बार आते रहें। पापी पेट का सवाल है। ख़बरों से अपना नाता भी इसी तरह का ही है , और हम उनका इंतज़ार नहीं करते बल्कि खोजते रहते हैं। देखा जाये तो हम संवेदनहीनता में इन सभी से आगे हैं। ये बात जिस दिन समझ जाओगे तुम मेरी जगह सह संपादक बन जाओगे , जिस दिन से तुम्हें इन बातों में मज़ा आने लगेगा और तुम्हें इनका इंतज़ार रहेगा उस दिन शायद तुम संपादक बन चुके होगे। कुछ लोग इससे और अधिक बढ़ जाते हैं और किसी न किसी पक्ष से लाभ उठा कर उनकी पसंद की बात लिखने लगते हैं अपना खुद का अख़बार शुरू करने के बाद। हमारी तरह नौकरी नहीं करते , हम जैसों को नौकरी पर रखते हैं। सब से बड़ा सत्य तुम्हें अब बताता हूं कि आजकल कोई अख़बार ख़बरों के लिये नहीं छपता है , सब का मकसद है विज्ञापन छापना। क्योंकि पैसा उनसे ही मिलता है इसलिये कोई ये कभी नहीं देखता कि इनमें कितना सच है कितना झूठ। सब नेताओं के घोटालों की बात ज़ोर शोर से करते हैं , सरकार के करोड़ों करोड़ के विज्ञापन रोज़ छपते हैं जिनका कोई हासिल नहीं होता , सरासर फज़ूल होते हैं , किसी ने कभी उन पर एक भी शब्द बोला आज तक। शर्मा जी की बातों का मुझ पर असर होने लगा था और मेरा मूड बदल गया था , मैंने कहा आपकी बात बिल्कुल सही है शर्मा जी। वे हंस कर बोले थे मतलब तुम्हारी तरक्की हो सकती है।

              इन बातों से मेरे मन से बोझ उतर गया था और मैं और अधिक उत्साह से उस केस की जानकारी एकत्र करने में जी जान से जुट गया था। शाम को जब अपनी रिपोर्ट संपादक जी को देने गया तो उन्होंने मुझे कि उनकी बात हुई है अख़बार के मालिक से तुम्हारी पदोन्ति के बारे और जल्दी ही तुम सह संपादक बना दिये जाओगे। जी आपका बहुत शुक्रिया , जब मैंने संपादक जी का आभार व्यक्त किया तब शर्मा जी की बात मेरे भीतर गूंज रही थी। मैं शर्मा जी का धन्यवाद करने गया तब उन्होंने पूछा कि अरुण तुम्हें कर्म की बात समझ आई कि नहीं। मैंने जवाब दिया था शर्मा जी कर्म का फल भी शीघ्र मिलने वाला है। हम दोनों हंस रहे थे , अख़बार मेज़ से नीचे गिर कर हमारे पांवों में आ गया था , कब हमें पता ही नहीं चला।


               2         सवाल विशेषाधिकार का 

यमराज जब पत्रकार की आत्मा को ले जाने लगे तब पत्रकार की आत्मा ने यमराज से कहा कि मैं बाकी सभी कुछ यहां पर छोड़ कर आपके साथ यमलोक में चलने को तैयार हूं , आप मुझे एक ज़रूरी चीज़ ले लेने दो। यमराज ने जानना चाहा कि वो कौन सी वस्तु है जिसका मोह मृत्यु के बाद भी आपसे छूट नहीं रहा है। पत्रकार की आत्मा बोली कि मेरे मृत शारीर पर जो वस्त्र हैं उसकी जेब में मेरा पहचान पत्र है उसको लिये बिना मैं कभी कहीं नहीं जाता। यमराज बोले अब वो किस काम का है छोड़ दो ये झूठा मोह उसके साथ भी। पत्रकार की आत्मा बोली यमराज जी आपको मालूम नहीं वो कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है , जिस किसी दफ्तर में जाओ तुरंत काम हो जाता है , अधिकारी सम्मान से बिठा कर चाय काफी पिलाता है , अपने वाहन पर प्रैस शब्द लिखवा लो तो कोई पुलिस वाला रोकता नहीं। पत्रकार होने का सबूत पास हो तो आप शान से जी सकते हैं। यमराज ने समझाया कि अब आपको जिस दुनिया में ले जाना है मुझे , उस दुनिया में ऐसी किसी वस्तु का कोई महत्व नहीं है। पत्रकार की आत्मा ये बात मानने को कदापि तैयार नहीं कि कोई जगह ऐसी भी हो सकती है जहां पत्रकार होने का कोई महत्व ही नहीं हो। इसलिये पत्रकार की आत्मा ने तय कर लिया है कि यमराज उसको जिस दुनिया में भी ले जाये वो अपनी अहमियत साबित करके ही रहेगी।

                       धर्मराज की कचहरी पहुंचने पर जब चित्रगुप्त पत्रकार के अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब देख कर बताने लगे तब उसकी आत्मा बोली मुझे आपके हिसाब किताब में गड़बड़ लगती है। आपने मुझसे तो पूछा ही नहीं कि आप सभी पर मेरी कोई देनदारी भी है या नहीं और अपना खुद का बही खाता खोल कर सब बताने लगे। आपको मेरी उन सभी सेवाओं का पारिश्रमिक मुझे देना है जो सब देवी देवताओं को मैंने दी थी। आपको नहीं जानकारी तो मुझे मिलवा दें उन सब से जिनके मंदिरों का मैं प्रचार करता रहा हूं। कितने देवी देवता तो ऐसे हैं जिनको पहले कोई जानता तक नहीं था , हम मीडिया वालों ने उनको इतना चर्चित कर दिया कि उनके लाखों भक्त बन गये और करोड़ों का चढ़ावा आने लगा। हमारा नियम तो प्रचार और विज्ञापन अग्रिम धनराशि लेकर करने का है , मगर आप देवी देवताओं पर भरोसा था कि जब भी मांगा मिल जायेगा , इसलिये करते रहे। अब अधिक नहीं तो चढ़ावे का दस प्रतिशत तो हमें मिलना ही चाहिये। धर्मराज ने समझाया कि वो केवल अच्छे बुरे कर्मों का ही हिसाब रखते हैं , और किसी भी कर्म को पैसे से तोलकर नहीं लिखते कि क्या बैलेंस बचता है। हमारी न्याय व्यवस्था में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि अच्छे कर्म का ईनाम सौ रुपये है और किसी बुरे का पचास रुपये जुर्माना है। और जुर्माना काटकर बाक़ी पचास नकद किसी को दे दें। पत्रकार की आत्मा कहने लगी , ऐसा लगता है यहां लोकतंत्र कायम करने और उसकी सुरक्षा के लिये मीडिया रूपी चौथे सतंभ की स्थापना की बहुत ज़रूरत है। मैं चाहता हूं आपके प्रशासनिक तौर तरीके बदलने के लिये यहां पर पत्रकारिता का कार्य शुरू करना , मुझे सब बुनियादी सुविधायें उपलब्ध करवाने का प्रबंध करें। धर्मराज बोले कि उनके पास न तो इस प्रकार की कोई सुविधा है न ही उनका अधिकार अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करने का। मुझे तो सब को उनके कर्मों के अनुसार फल देना है केवल।

                        पत्रकार की आत्मा कहने लगी हम पत्रकार हमेशा सर्वोच्च अधिकारी से ही बात करते हैं। आपके ऊपर कौन कौन है और सब से बड़ा अधिकारी कहां है , मुझे सीधा उसी से बात करनी होगी। ऐसा लगने लगा है जैसे पत्रकार की आत्मा धर्मराज को ही कटघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रही है। जैसे धर्मराज यहां पत्रकार के कर्मों का लेखा जोखा नहीं देख रहे , बल्कि धर्मराज की जांच पड़ताल करने को पत्रकार की आत्मा पधारी है यहां। आज पहली बार धर्मराज ये सोचकर घबरा रहे हैं कि कहीं इंसाफ करने में उनसे कोई चूक न हो जाये। पत्रकार की आत्मा धर्मराज के हाव भाव देख कर समझ गई कि अब वो मेरी बातों के प्रभाव में आ गये हैं , इसलिये अवसर का लाभ उठाने के लिये वो धर्मराज से बोली , आपको मेरे कर्मों का हिसाब करने में किसी तरह की जल्दबाज़ी करने की ज़रूरत नहीं है। जब चाहें फैसला कर सकते हैं , लेकिन जब तक आप किसी सही निर्णय पर नहीं पहुंच जाते , तब तक मुझे अपनी इस दुनिया को दिखलाने की व्यवस्था करवा दें। मैं चाहता हूं यहां के देवी देवता ही नहीं स्वर्ग और नर्क के वासियों से मिलकर पूरी जानकारी एकत्रित कर लूं। पृथ्वी लोक पर भी हम पत्रकार पुलिस प्रशासन , सरकार जनता , सब के बीच तालमेल बनाने और आपसी विश्वास स्थापित करने का कार्य करते हैं। कुछ वही यहां भी मुमकिन है।

                          काफी गंभीरता से चिंतन मनन करने के बाद धर्मराज जी इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि अगर इस आत्मा से पत्रकारिता के भूत को नहीं उतारा गया तो ये यहां की पूरी व्यवस्था को ही छिन्न भिन्न कर सकती है। इस लोक में पत्रकारिता करके नया भूचाल प्रतिदिन खड़ा करती रहेगी। तमाम देवी देवताओं को प्रचार और उनके साक्षात्कार छापने - दिखाने का प्रलोभन दे कर प्रभावित करने का प्रयास कर सकती है। पृथ्वी लोक की तरह यहां भी खुद को हर नियम कायदे से ऊपर समझ सकती है। पहले कुछ नेताओं अफ्सरों की लाल बत्ती वाली वाहन की मांग भी जैसे उन्होंने स्वीकार नहीं की थी उसी तरह पत्रकारिता के परिचय पत्र की मांग को भी ठुकराना ही होगा। धर्मराज जी ने तुरंत निर्णय सुना दिया है कि जब भी अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब किया जायेगा तब इसका कोई महत्व नहीं होगा कि किस की आत्मा है। नेता हो अफ्सर हो चाहे कोई पत्रकार , यहां किसी को कोई विशेषाधिकार नहीं होगा।

           3       जो बिक गये , वही खरीदार हैं 

कहानी एक वफादार कुत्ते की है। अपने गरीब मालिक की रूखी सूखी रोटी खा कर भी वो खुश रहता। कभी भी गली की गंदगी खाना उसने स्वीकार नहीं किया। वो जानता था कि मालिक खुद आधे पेट खा कर भी उसको भरपेट खिलाता है। इसलिये वो सोचता था कि मुझे भी मालिक के प्रति वफादार रहना चाहिये , उसके सुख़ दुःख को समझना चाहिये। वो दिन रात मालिक के घर और खेत खलियान की रखवाली करता। अचानक कुछ लोग मालिक के घर महमान बन कर आये और उसके कुत्ते की वफादारी को देख उससे कुत्ते को खरीदने की बात करने लगे। गरीब मालिक अपने कुत्ते को घर का सदस्य ही मानता था इसलिये तैयार नहीं हुआ किसी भी कीमत पर उसको बेचने के लिये। तब उन्होंने कुत्ते को लालच दे कर कहा कि तुम इस झौपड़ी को छोड़ हमारे आलीशान महल में चल कर तो देखो। मगर वफादार कुत्ते ने भी उनके साथ जाने से इनकार कर दिया। ऐसे में उन्होंने दूसरी चाल चलने का इरादा कर लिया और कुत्ते से कहा कि तुम रहते तो यहीं रहो , बस कभी कभी ख़ास अवसर पर जब हम बुलायें तब आ जाया करना। हम भी तुम्हें खिला पिला कर दिखाना चाहते हैं कि तुम हमें कितने अच्छे लगते हो। बस यही राजनीति की चाल थी , वे यदा कदा आते और कुत्ते को घुमाने को ले जाते। कभी कोई बोटी डाल देते तो कभी हड्डी दे देते चबाने को। धीरे धीरे कुत्ता उनकी आने की राह तकने लगा , और उनके आते ही दुम हिलाने लगा। इस तरह अब उसको मालिक की रूखी सूखी रोटी अच्छी नहीं लगने लगी और धीरे धीरे उसकी वफादारी मालिक के प्रति न रह कर चोरों के साथ हो गई। जब महमान बन कर आये नेता ही चोर बन उसका घर लूटने लगे तो बेखबर ही रहा। अपने कुत्ते की वफादारी पर भरोसा करता रहा जबकि वो अब चोरों का साथी बन चुका था।

                              आजकल किसी गरीब की झौपड़ी की रखवाली कोई कुत्ता नहीं करता है। अब सभी अच्छी नस्ल के कुत्ते कोठी बंगले में रहते हैं कार में घूमते हैं। मालकिन की गोद में बैठ कर इतराते हैं , और सड़क पर चलते इंसानों को देख सोचते हैं कि इनकी हालत कितनी बदतर है। हम इनसे लाख दर्जा अच्छे हैं। इन दिनों कुत्तों का काम घरों की रखवाली करना नहीं है , इस काम के लिये तो स्कियोरिटी गार्ड रखे जाते हैं। कुत्ते तो दुम हिलाने और शान बढ़ाने के काम आते हैं। जो आवारा किस्म के गली गली नज़र आते हैं वे भी सिर्फ भौंकने का ही काम करते हैं , काटते नहीं हैं। जो रोटी का टुकड़ा डाल दे उसपर तो भौंकते भी नहीं , जिसके हाथ में डंडा हो उसके तो पास तक नहीं फटकते।
                                     चुनाव के दिन चल रहे हैं , ऐसे में एक नेता जी अखबार के दफ्तर में पधारे हैं , अखबार का मालिक खुश हो स्वागत कर कहता है धनभाग हमारे जो आपने यहां स्वयं आकर दर्शन दिये। मगर नेता जी इस बात से प्रभावित हुए बिना बोले , साफ साफ कहो क्या इरादा है। अब ये नहीं चल सकता कि खायें भी और गुर्रायें भी। संपादक जी वहीं बैठे थे , पूछा नेता जी भला ऐसा कभी हो सकता है। हम क्या जानते नहीं कि आपने कितनी सुविधायें हमें दी हैं हर साहूलियत पाई है आपकी बदौलत। आप को नाराज़ करके तो हमें नर्क भी नसीब नहीं होगा और आपको खुश रख कर ही तो हमें स्वर्ग मिलता रहा है। आप बतायें अगर कोई भूल हमसे हो गई हो तो क्षमा मांगते हैं और उसको सुधार सकते हैं। नेता जी का मिज़ाज़ कुछ नर्म हुआ और वो कहने लगे कि कल आपके एक पत्रकार ने हमारी चुनाव हारने की बात लिखी है स्टोरी में , क्या आपको इतना भी नहीं पता। संपादक जी ने बताया कि अभी नया नया रखा है , उसको पहले ही समझा दिया है कि नौकरी करनी है तो अखबार की नीतियों का ध्यान रखना होगा। आप बिल्कुल चिंता न करें भविष्य में ऐसी गल्ती नहीं होगी। अखबार मालिक ने पत्रकार को बुलाकर हिदायत दे दी है कि आज से नेता जी का पी आर ओ खुद स्टोरी लिख कर दे जाया करेगा और उसको ही अपने नाम से छापते रहना जब तक चुनाव नहीं हो जाते। सरकारी विज्ञापन कुत्तों के सामने फैंके रोटी के टुकड़े हैं ये बात पत्रकार जान गया था।

                     सच कहते हैं कि पैसों की हवस ने इंसान को जानवर बना दिया है। जब नौकरी ही चोरों की करते हों तब भौंके तो किस पर भौंके। भूख से मरने वालों की खबर जब खूब तर माल खाने वाला लिखेगा तो उसमें दर्द वाली बात कैसे होगी , उनके लिये ऐसी खबर यूं ही किसी छोटी सी जगह छपने को होगी जो बच गई कवर स्टोरी के शेष भाग के नीचे रह जाता है। कभी वफादारी की मिसाल समझे जाते थे ये जो अब चोरों के मौसेरे भाई बने हुए हैं। जनता के घर की रखवाली करने का फ़र्ज़ भुला कर उसको लूटने वालों से भाईचारा बना लिया है अपने लिये विशेषाधिकार हासिल करने को। जब मुंह में हड्डी का टुकड़ा हो तब कुत्ता भौंके भी किस तरह। अपना ज़मीर बेचने वालों ने जागीरें खड़ी कर ली हैं इन दिनों। जो कोई नहीं बिका उसी को बाकी बिके लोग मूर्ख बता उपहास करते हैं ये पूछ कर कि तुमने बिकने से इनकार किया है या कोई मिला ही नहीं कीमत लगाने वाला क्या खबर। वो मानते हैं कि हर कोई किसी न किसी कीमत पर बिक ही जाता है। तुम नहीं बिके तभी कुछ भी नहीं तुम्हारे पास , खुद को बेच लो ऊंचे से ऊंचा दाम लेकर ताकि जब तुम्हारी जेब भरी हो तिजोरी की तरह , तब तुम औरों की कीमत लगा कर खरीदार बन सको और ये समझ खुश हो सको कि सब बिकाऊ हैं तुम्हारी ही तरह।

          4     जिन्हें अंधकार से प्यार हो गया है 

  घटना पुरानी है दस साल पहले की , लोग भूल भी गये होंगे , मुझे बार बार याद आती रहती है , क्योंकि उसी तरह की खबरें आये दिन पढ़ने को मिलती ही रहती हैं।  घटना इतनी सी है कि एक आदमी अपने एक कमरे के किराये के घर में ज़िंदा जलकर मर गया। हम सभी ने कभी न कभी अपने हाथ को किसी गर्म बर्तन से छूने से या गलती से आग को छूने का एहसास किया होगा , वो जलन वो दर्द सिरहन पैदा करता है। जब भी सुनते हैं कोई आग में झुलस गया या ज़िंदा जल गया तन बदन में कंपकंपी सी होने लगती है। मगर उस दिन इक अख़बार ने वो खबर छापी थी तब के विधायक की तस्वीर के साथ ये बताने को कि उस गरीब की अस्वाभाविक मौत पर जब उन्होंने ये जानकारी नेता जी को दी तो वह खुद गये उस पिड़ित परिवार को पचीस हज़ार की सहायता राशि देने को। क्या ऐसी घटना के बाद  मात्र यही मान लेना काफी है कि आग बिजली के शार्ट सर्किट से लगी होगी , और क्योंकि घर के बाकी चार सदस्य बाहर गये हुए थे , और वह अकेला एक साल से तपेदिक से बीमार था चारपाई पर लाचार लेटा रहा , चल फिर नहीं सकता था खुद अपना बचाव नहीं कर सका और तड़प तड़प कर मर गया। सरकार आज भी यही करती है और दावा करती है उनकी योजनाएं लोकहितकारी हैं। कई बार समाचार से हमें जितनी बात मालूम होती है उस से अधिक महत्वपूर्ण वो होता है जो न कोई बताता है न शायद कभी हम भी सोचते ही हैं। उस खबर से मेरे मन में जो सवाल उठे और मैंने संबंधित लोगों से पूछे जिनको सुन वो खफा हुए मेरे साथ आज बताता हूं , अर्थात दोहराता हूं। जो आदमी इस कदर बीमार हो उसको तो हॉस्पिटल में भर्ती होना चाहिए था , मगर पता चला सरकारी हॉस्पिटल ने इनकार कर दिया था , जबकि स्वास्थ्य विभाग का प्रचार है टी बी की दवा "डॉट्स " घर घर पहुंचाने का। उस गरीब परिवार को सरकारी बी पी एल कार्ड भी नहीं मिला था न ही कोई मुफ्त प्लाट सौ गज़ का जैसा सरकारी विज्ञापन दावा करता है। आप प्रतिदिन कितने ऐसे विज्ञापन टीवी पर या अख़बार में देखते या पढ़ते हैं , असलियत कोई नहीं जानता।

                               क्या हर खबर आपके लिये इक तमाशा भर है। अब लगता है जैसे कुछ लोगों को अंधकार से प्यार हो गया है। पतन को उत्थान घोषित कर दो , पाप को पुण्य बताओ , झूठ पर सच का लेबल लगा दो , धृतराष्ट्र को दूरदर्शी बताकर उसका गुणगान करो। राजनीति रूपी नर्तकी सभी को लुभा रही है , उसे हासिल करने को किसी भी सीमा तक नीचे गिरने को तैयार हैं लोग। स्वार्थ की आंधी सभी को उड़ा कर ले जा रही है , सफल होना एकमात्र ध्येय है और सफलता का मतलब धनवान होना ही है। जानते हुए भी अंधविश्वास और छल कपट को बढ़ावा दे रहे हैं चंद सिक्कों में ईमान बिक रहा है। पैसे का मोह ऐसा बढ़ा है कि जो सच का चिराग लेकर चले थे आज रौशनी से बचने और अंधेरों का कारोबार करने लगे हैं। मकसद आम नहीं ख़ास कहलाना है , उसकी कीमत चुकाने को राज़ी हैं। जनता के ज़िंदा रहने या मरने से अधिक महत्व खुशहाल जीवन और सुख सुविधा धन दौलत बंगला गाड़ी जैसी चीज़ों का लगता है। हमारा किसी विचारधारा से कोई सरोकार नहीं है , बस इक अवसर की तलाश है। जो हमें ऊपर ले जा सके उसी का गुणगान करने को तत्पर हैं। हमें इक दल मिल गया है जो अपने को कहता आम है मगर समझता सब से ख़ास है। उसका रंग उसका पहनावा यही हमारी पहचान है , कथनी और करनी का विरोधभास तक हमें मंज़ूर है। कल तक जिन आदर्शों जिन मूल्यों की बात किया करते थे हम आज वो फज़ूल लगती हैं। हमारा मकसद अपने कार्य को इक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करना था , ऊपर आते ही उस सीढ़ी को नष्ट कर दिया है ताकि कोई दूसरा उसका उपयोग नहीं कर सके। अब हमें अपने नेता की जयजयकार करनी है , आडंबर करना है जनसेवा का और जनता ही नहीं खुद को भी धोखा देना है। हमारा दल लोकतंत्र के नाम पर व्यक्तिपूजा करने में आस्था रखता है , दल के भीतर असहमति के लिए कोई स्थान नहीं है। अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के अधिकार को हमने दल के नेता का पास गिरवी रख दिया है।

             5         चरण पादुका को झुका सर 

     आप इस संपादकीय को सत्ता की आरती कह सकते हैं , किसी अधिकारी के नाम का चालीसा भी। फल दायक तो है ही , जो लोग अपराध रोकने नहीं बढ़ाने का कार्य करते रहे उनको बताया जा रहा संकल्प लिया है अपराध मिटाने का , उनको रखा किसलिए गया है। अपराध बढ़ने पर जिनको कटघरे में खड़ा करना चाहिए उनकी महिमा का बखान कर रहे हो ये क्या कर रहे हो। कभी कोई किसी के इशारे पर आलेख छापता है और खुद न्यायधीश बनकर सच झूठ की अपनी व्याख्या करता है। कोई वक़्त था जब कहते थे :-

       खींचों न कमानों को न तलवार निकालो , जब तोप मुकाबिल हो अख़बार निकालो।

   अब ये हालत है कि अख़बार किसी उद्देश्य को लेकर नहीं स्वार्थ साधने को धन दौलत कमाने को और बिना किसी योग्यता के विशेषाधिकार हासिल करने को लोग इस धंधे में आते हैं और सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते संसद तक पहुंच जाते हैं। जितना नीचे गिरते हैं उतना ऊंचा आकाश पर पहुंचते हैं मगर जिस दिन पर नहीं साथ देते ज़मीन पर गिरते हैं घायल होकर।

अगस्त 20, 2018

घोड़े की कहानी घास की ज़ुबानी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    घोड़े की कहानी घास की ज़ुबानी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

     हम दोनों का साथ जन्म जन्म का है। मैं जनता की तरह हूं और तुम नेता की तरह। तुम मुझे चरते भी हो और पांव तले कुचलते भी हो मगर मैं खामोश रहती हूं। चनावी मौसम के आने से पहले नेता खाली बादलों जैसे गरजने लगते हैं जनता को अपने होने का एहसास दिलवाने को और बारिश लाएंगे वादों की समझाने को। घोड़े की तरह अपने दल को मालिक समझ अपने पीठ पर बिठा सत्ता की मंज़िल तक पहुंचाने को तैयार रहते हैं और उसी के हाथ पकड़ी लगाम से दिशा और गति बदलते हैं। नेताओं के जनता मौसमी घास की तरह है भूख लगी तभी खाने को काम आती है मौसम गुज़रते ही घास की तरफ देखते ही नहीं घर बैठे पेट भरने को जो चाहते हैं मिल जाता है। नेता खुद भरोसे के काबिल नहीं होते मगर हर समय यही सोचते हैं ये जनता है इसका कोई भरोसा नहीं कब किसे पटक दे किसे सर पर बिठा ले। भगवान कृष्ण भी इस बारे उपदेश देने से बचते हैं। घास की मज़बूरी है घोड़ा किसी दल के रंग का हो लगाम किसी के भी हाथ हो चुनना पड़ता है , कुछ घोड़े घोड़े नहीं गधे होते हैं जो बेकार शोर करते हैं और कब किसी को दुल्लती मार दें कोई नहीं जानता। इनकी गति धोबी के गधे की तरह की होती है घर के रहते हैं न ही घाट के। गधों की परेशानी है कि कुम्हार की बीवी गधे से गिरती है तो लड़ती कुम्हार के साथ है। हारने के बाद अपनी हार का ठीकरा किसी और पर डालना इसी को कहते हैं। घोड़ा घास खाते खाते घास से अपनी कहानी सुन रहा है। 
 
              जनता बेचारी जानती ही कैसे परखना है किस रंग के घोड़े पर दांव लगाना है। घोड़ों की दौड़ में जुए पर देश की गरीब जनता दांव पर लगी होती है। जो भी जीते चीरहरण करना ही है। बेबस है कोई चारा नहीं है नागनाथ सांपनाथ दोनों एक से हैं। कुंवारी कन्या की तरह ख़ुशी से पहले वरमाला डालती है उसके बाद पछताती है किसे क्या समझ कर चुना और वो क्या निकला। पांच साल की बात है उसके बाद शायद कोई मसीहा आज़ाद करवाने आएगा सोचती है। मसीहा कभी नहीं आता है अपनी रस्सी अपनी जंजीर खुद तोड़नी पड़ती है खुद को घायल कर आज़ाद होने को। सब को अपनी सेज सजानी है और उसका उपयोग करना है अपनी मनमर्ज़ी से हर तरह की कामना पूरी करने को। जनता का सब कुछ लूट कर भी उनकी हवस मिटती नहीं है पांच साल में और तब फिर से छलने को नया जाल बुनते हैं मछली पकड़ने की तरह या पंछी को पिंजरे में कैद करने को दाना डालते हैं। सियासत चोले बदलती है और हर बार रूप बदलकर लुभाती है। घास सूखे में मर जाती है और वादों की बारिश आते ही लहलहाती है। ये जो तेरा सवार है वो भी गुनहगार है घास समझाती है मगर पेट भरा हो सच्ची बात कब समझ आती है। कौन सा वादा किया पूरा गिनवाती है। घोड़े की अक्ल भी घास चरने जाती है उसकी गिनती भी दस तक की ही आती है। 
 
             क्या यही मधुमास है , खाली सफेद कैनवास है। न कोई घोड़ा है न कहीं  हरी हरी घास है।  ये आज़ादी है या कभी खत्म नहीं होने वाला बनवास है। फिर भी लगाए हुए आस है , चाहे कितनी हताश है। सूखा मचा रही ये कैसी बरसात है। नेता की हर बार शह और जनता की मात है। हर बार दोहराया जाता फिर पुराना इतिहास है। अन्याय का नहीं होता अंत , न होती न्याय की पूरी आस है। गर्म हवाओं को कहते हैं नेता , जनता देखो आया मधुमास है। एक समान नहीं देशवासी कोई आम है कोई ख़ास है। जिस जिस पर विश्वास किया उसी ने तोडा विश्वास है। बन गए सत्ता के गलियारे चोरों और ठगों के दास हैं। उनकी सत्ता की पालकी सजी हुई है , भीतर क्या है लोकतंत्र रुपी दुल्हन की लाश है।

अगस्त 18, 2018

जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग 13 डॉ लोक सेतिया

जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग 13   

                                    डॉ लोक सेतिया 

        कल रात 17 अगस्त की कहानी से दो बातें समझ आईं मुझे। पहली ये कि ईमानदार इंसान हर हालात में ईमानदारी पर कायम रहता है और यही सच्ची ईमानदारी है , जो लोग मुश्किलों की आड़ में अपनी बेईमानी को ढकते हैं खुद को ईमानदार नहीं कह सकते। दूसरी बात कोई बुरे इंसान में अच्छाई को पहचानता है तो कोई अच्छे इंसान में भी बुराई तलाश करता है। कैसे इस को समझते हैं कल की कहानी से। 
 
    इक विदेशी महिला को सोशल मीडिया पर एक भारतीय से प्यार हो जाता है। फेसबुक पर चैट पर बातें करते हैं कोई विडिओ काल भी नहीं क्योंकि चाहते हैं जब मिलें तभी आमने सामने एक दूसरे को देखें। वो अपनी दोस्त को बताती है कि मैं भारत जाकर अपने प्रेमी को अचंभित करना चाहती हूं। दोस्त समझाती है भारत में बिना पहचान अकेली लड़की का जाना सुरक्षित नहीं है। फेसबुक पर बहुत लोग झूठी पहचान से सम्पर्क बनाते हैं और कौन क्या चाहता है समझना कठिन है। भारत में कानून व्यवस्था की दशा बेहद खराब है और गरीबी भ्रष्टाचार है तुम वहां नहीं जाओ और मिलना है तो अपने प्रेमी को यहां बुला कर मिलकर पहचान लो। स्टुडिओ में अधिकतर दर्शक उस दोस्त की बात से सहमत हैं। इतनी कहानी देख कर।

     मगर वो विदेशी महिला नहीं मानती और भारत चली आती है। हवाई अड्डे के बाहर ही टेक्सी वालों की बातों से बेचैन हो जाती है और एक टेक्सी चालक उसे अपनी टेक्सी में बिठा लेता है बाकी को ये कहकर कि ये मेरी पुरानी सवारी है। मगर सोच रहा होता है इसको पास की गली पहुंचाने के अधिक पैसे लेकर फायदा उठाऊंगा। उसको बताता है पांच हज़ार रूपये लूंगा मगर उसे अधिक लगते हैं तो कहता है मैडम जी डॉलर नहीं रूपये की बात है। उसका फोन चार्ज करने को ले लेता है और फिर इक गली में उतार कर कहता है ये अमुक नंबर है आस पास ही आपका वाला नंबर है आप ढूंढ लेना और सामान उतार कर जल्दी से चला जाता है। महिला को ध्यान आता है मेरा फोन टेक्सी में ही रह गया और वो आवाज़ देती पीछे भागती है मगर नहीं रोक पाती। इसी बीच उसका सामान कोई चोर उठाकर भाग जाता है। अब उसके पास कुछ भी बचा नहीं है खाली हाथ है और वीज़ा पासपोर्ट सब चोरी हो गए हैं , उस पर पता चलता है पता भी गलत है नाम मिलता जुलता होने से टेक्सी वाला गलत जगह छोड़ गया है।

          ऐसे में पुलिस थाने जाती है तो जो वास्तव में हमारे देश में होता है वही उस विदेशी महिला के साथ भी घटता है। कोई बात सुनने को ही तैयार नहीं है क्योंकि कोई वीआईपी आने वाला है। इक सिपाही को कहते हैं इन मैडम जी की रिपोर्ट दर्ज करवा दो। और लिखने के बाद कहते हैं मैडम सफेद रंग की हज़ारों टेक्सी हैं और आधे चाक यादव नाम के होंगे फिर भी पता चला तो आपको सुचित कर देंगे। मगर बाहर निकलते हुए एक पुलिस वाला बताता है हम सब जानते हैं किस एरिया में कौन कौन चोर है। आपका सामान मिल जाएगा मगर पचास हज़ार रूपये देने पड़ेंगे। जब वो बताती है कि उसके पास कुछ है ही नहीं तो उसका उपाय भी बताया जाता है कि आप हामी भर दो जब सामान मिल जाये पैसे तब दे देना। मगर वो नहीं मानती और चली जाती है। शायद आपको भी पढ़कर लगा होगा जो स्टूडियो में बैठे दर्शक महसूस करते हैं कि हम कैसे देश में रहते हैं जहां महमान को भगवान समझते हैं मगर वास्तव में विदेश से आई महिला से कितना गलत व्यवहार किया जा रहा है। शर्मसार होते हैं दर्शक।

        परेशान रोटी हुई इक महिला बीच बाज़ार फुटपाथ पर बैठी है कि तभी पास के एटीएम से निकलते किसी का पर्स गिर गया देखती है और जब तक उठाती है वो आदमी अपनी कार में बैठ चल देता है। ये वास्तविक इम्तिहान की घड़ी है , उसका सब चोरी हो गया है और मज़बूरी की सीमा नहीं है तब भी वो जिसका पर्स है उसकी कार के पीछे दौड़ती है और काफी दूर भागने के बाद रोककर कहती है ये आपका पर्स वहां गिर गया था। कोई भी सोचेगा वो आदमी धन्यवाद तो करेगा ही , मगर नहीं वो कहता है तुमने इस में से पैसे निकाले तो नहीं हैं। शायद ये हमारी मानसिकता है हर किसी को शक की निगाह से देखना। इक इत्तेफ़ाक़ होता है ये सब यादव नाम का टेक्सी चालक सामने से देखकर पास आता है और उस कार वाले को कहता है आपको ऐसी बात बोलते शर्म नहीं आई कि जो भागकर खुद आपको आपका गिरा पर्स देने आई है आप उसी को ऐसे बोलकर क्या कर रहे हैं। और वो उस महिला को उसका फोन भी लौटाता है और जो पैसे लिए वो भी दे देता है और किसी होटल में ठहरने को सलाह देता है। अगली सुबह फिर आता है और उस विदेशी महिला को उनके देश के दूतावास पर लाता है जहां से उसको सहायता मिलती है वापस जाने को इक हवाई जहाज़ की टिकट मिल जाती है। टेक्सी चालक उसे सलाह देता है आप जिस बॉबी नाम की फेसबुक की बात करती है मैंने देखा है उसने इक मशहूर गायक की तस्वीर लगाई हुई है। और ऐसे बहुत लोग करते हैं , तभी उस महिला की चैट पर मैसेज आता है और वो टेक्सी चालक को उसके पते पर ले जाने को कहती है। टेक्सी चालक समझाता है कि फिर से आपको दूतावास मुफ्त टिकट नहीं देगा , मगर वो नहीं मानती और कहती है जो भी हो अपने प्यार की वास्तविकता देखे बिना वापस नहीं जाउंगी। जब उस पते पर पहुंचते हैं तब उसका प्रेमी बेहद खुश होता है गले लगाता है , और वो वास्तव में मशहूर गायक ही है मगर फेसबुक अपने घर के नाम से बनाई होती है। प्यार सच्चा है और दोनों प्रेमी मिल जाते हैं।

                   तब वो विदेशी महिला टेक्सी चालक को कहती है कि तुम्हारे कारण मुझे अपना प्यार मिला है। जब सब चोरी हो गया था तो मैं निराश होकर लौट जाना चाहती थी मगर तुमने भले मुझे पहले मूर्ख बनाया और गलत किया मेरे साथ लेकिन जब मैं मुसीबत में थी तब तुम्हारे भीतर का अच्छा इंसान मेरी सहायता को आगे आया तो मुझे लगा सब में कोई न कोई अच्छा इंसान भी रहता है और सभी ख़राब नहीं होते हैं। अंत देख कर दर्शक समझते हैं कि कहानी का असली नायक वो टेक्सी चालक ही था। क्या हम कोई सबक लेंगे और हर किसी के साथ उचित आचरण करने की आदत डालेंगे। सरकार को और पुलिस और प्रशासन को भी समझना होगा कि हम किस सीमा तक नीचे गिर चुके हैं और अपनी प्रतिष्ठा को गवां चुके हैं। 
 

 

ये कैसा शोक मना रहे हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      ये कैसा शोक मना रहे हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

बहाने अश्क जब बिसमिल आये  ,
सभी कहने लगे पागल आये।

सभी के दर्द को अपना समझो ,
तुम्हारी आंख में भर जल आये।

किसी की मौत का पसरा मातम ,
वहां सब लोग खुद चल चल आये।

भला होती यहां बारिश कैसे ,
थे खुद प्यासे जो भी बादल आये।

कहां सरकार के बहते आंसू ,
निभाने रस्म बस दो पल आये।

संभल के पांव को रखना "तनहा" ,
कहीं सत्ता की जब दलदल आये। 

     कितना बदल गया इंसान। जिनको नहीं पता उनको बताना चाहता हूं किसी और युग में नहीं इसी दुनिया में कुछ ही साल पहले जब किसी की मौत होने पर शोक में होते थे तो घर में भी टीवी रेडिओ बंद हो जाता था और मौज मस्ती की बात करना ही अनुचित लगता था। जब देश के किसी महान नेता का निधन होता और कुछ दिन शोक मनाने की घोषणा की जाती थी तो टीवी रेडिओ पर फ़िल्मी गीत नाटक आदि बंद कर केवल शास्त्रीय संगीत सुनाई देता था। मनोरंजन की बात कोई नहीं करता था। शोक दिखाने को नहीं वास्तव में लोगों को लगता था कोई अपना नहीं रहा तो हम छुट्टी मनाने होटल पिकनिक जाने की बात कैसे कर सकते हैं। शोक सभा श्रद्धांजलि सभा में लोग खुद ही चले जाते थे बस खबर मिलनी चाहिए। मैं जनता हूं कुछ लोग शहर में जिस किसी के घर शोक की घड़ी हो संवेदना प्रकट करने जाया करते थे। अब तो बुलावे की बात की जाती है दिखावे की बात की जाती है। किसी देश के रत्न की निधन की बात पर भी दलगत दलदल की बात की जाती है। भगवान के घर जाकर भी मतलब की बात की जाती है। शोक सभा होना और बात है मन में शोक की भावना होना और बात। अधिकतर श्रद्धांजिसभाओं में आडंबर दिखावा होता है शोक नहीं होता है। जब लोग अफ़सोस करने तक में हिसाब लगाने लगें या फिर शोकसभा में दिवंगत आत्मा की नहीं अपनी बात करने लगें तो समझ लो अब हमारा समाज इतना नीचे गिर चुका है कि उसे दुःख की बात भी अवसर की बात लगती है। हमने इस शोकसभा में नहीं उस शोकसभा में जाना है एक ही व्यक्ति को लेकर भी दुविधा है भीड़ कहां होती है। भीड़ होना या अकेले होना कोई मतलब नहीं है इस बात का , मतलब आपके अंदर कौन है कोई है जिसे वास्तव में दर्द की अनुभूति है अन्यथा व्यर्थ है आपकी संवेदना। कुछ लोग बहाने बनाते हैं हम क्या करें ऊपर हाल में जाना मुश्किल है घुटनों में दर्द है , जब कोई लाभ नाम शोहरत की ज़रूरत थी तब कहां गया था आपके घुटनों का दर्द। विवाह समारोह में तीसरी मंज़िल पर सीढ़ियां चढ़कर जाने वाले किसी अपने का हाल पूछने नहीं जाने पर बहाना बनाते हैं घर उसका पहली मंज़िल पर है नहीं जा सकते।

           मौत पर श्रद्धांजलि देने तो दुश्मन भी आते हैं और तब दुःख में दुश्मनी याद नहीं रहती है। हमने बचपन में देखा इक नवयुवक की अपनी ही बंदूक की गोली लगने से हादिसे में जान चली गई। बंदूक केवल एक खेत के पड़ोसी से दुश्मनी के डर से रखते थे। तब जो दुश्मन था उसे भी दुःख हुआ था और समझा था कि इस का कारण हमारी आपसी दुश्मनी है और उसने तभी सब के सामने दुश्मनी छोड़ने का एलान कर दिया था। आज वो लोग जो खुद कल किसी और दल में थे आज उनके दल में हैं विरोधी को शोक जताने की भी इजाज़त नहीं देते , अगर खुद यही विरोधी दल में होते तो क्या शोक अनुभव करते। रात को उसी दल के पदाधिकारी को अपने नेता के अंतिम संस्कार के दो घंटे बाद ही होटल में परिवार के साथ पार्टी करते देखा , दिल चाहता था उनसे जाकर कहूं शर्म नहीं आती आपको। मगर अंजाम जनता हूं मुझे ही ज़ख्म मिलते। नहीं ऐसा नहीं है कि उनको दुःख नहीं है , सोशल मीडिया पर उनके आंसू थम ही नहीं रहे। जब नाच गा रहे हैं उसी समय स्टेटस बता रहा है रो रहे हैं ज़ार ज़ार। फेसबुक व्हाट्सएप्प का चेहरा इतना विकृत भी हो सकता है अंदाज़ा नहीं था। नेताओं को जनता के दुःख दर्द से वास्ता नहीं होता ये तो सुना था इक शेर भी है।

     कौम के ग़म में डिनर करते हैं हुक्काम के साथ , रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।

मगर अपने ही दल के पितामाह के निधन पर भी ऐसा होता है ये नहीं मालूम था। थोड़ी लाज दिखावे को रखी होती , सब लोग आपको देख रहे थे ये अपने नेता के निधन का शोक भी जश्न मनाकर करते हैं। मैंने इन दिनों अपनी शोकसभा पर कई बातें लिखी हैं , मगर करीब तीस साल पहले इक नज़्म वसीयत शीर्षक से लिखी थी आज फिर से सुनाता हूं। मेरी इच्छा यही है मगर पूरी नहीं होगी ये भी जानता हूं , क्योंकि हमारे समाज के ठेकेदार लठ लेकर परिवार के पीछे पड़ जाएंगे ऐसा किया तो। ऐसा केवल ख़ास लोगों को करने की इजाज़त है क्योंकि उनको इस की परवाह नहीं होती कि लोग क्या कहेंगे। हाज़िर है वो नज़्म :-


जश्न यारो , मेरे मरने का मनाया जाये ,

बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये।

इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात ,

जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये।

वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं ,

कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये।

मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे ,

मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये।

दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई ,

ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये।

जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी ,

इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये।