जून 16, 2018

नींद क्यों रात भर नहीं आती ( खामखा की बात ) डॉ लोक सेतिया

  नींद क्यों रात भर नहीं आती ( खामखा की बात ) डॉ लोक सेतिया 

      बुरा हो जिसने अखबार का विचार शुरू किया। हर दिन कोई खबर उदास कर देती है। लोग न जाने कैसे चैन की बंसी बजाते हैं जब आस पास आग ही आग लगी हो। कबीर कहते हैं करेंगे सो भरेंगे तू क्यों भयो उदास। आपको क्या लगता है कबीर मस्ती करते थे , उदास नहीं होते थे। उदास होते थे मगर यही सोचते थे कि मेरे उदास होने से होगा क्या। रेणु जी कहते थे तुम कबीर न बनना मगर खुद सारी ज़िंदगी कबीर बने रहे। आजकल लोग खुश होने का पाठ पढ़ाते हैं वो भी सोशल मीडिया पर। ख़ुशी मिलती कहां कोई पता नहीं बताता है। नानक बाबा उदासी की बात करते हैं , उदास होना अर्थात विरक्त होना मोह माया के जाल से। नहीं हुआ जा सकता लाख कोशिश की , न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। कंचन लोह समान , कोई डर नहीं किसी से न ही किसी को डराना है। तब अख़बार टीवी नहीं थे फिर भी खबर सब को होती थी , अब खबर सुनकर भी बेखबर रहते हैं। खबर इक दूजे को भेजते हैं दिन भर व्हाट्सएप्प पर खुद बिना सोचे समझे , झूठ सच की परख भी कोई नहीं करता। टीवी वालों को खबर तलाश नहीं करनी पड़ती , खबर खुद चल कर आती है और वो दिन भर उस पर बहस करवाते हैं। सब वॉयरल वीडियो का सच बिना समझे समझाते हैं। खबर बड़े लोगों की होती है और मनोरंजन को होती है , रोने धोने की फुरसत किसे है। आप इस पर मत लिखना ये विषय बेहद गंभीर है किसी को आहत नहीं करना चाहिए। मत कहो आकाश में कोहरा घना है , ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। खबरची लोग सीना तान कहते हैं ऐसा हमारी खबर का असर है , खबर की नहीं मगर होती खबर है। हमको इस सब से क्या लेना देना है , वास्तविक खबरों पर यही विचार आता है। कुछ सालों से अख़बार टीवी वाले सर्वेक्षण करते हैं लोग क्या खबर पढ़ना चाहते हैं , खबर भी लोगों की पसंद की हो सकती है। इक दोस्त लेखक की कविता है , कोई अच्छी खबर लिखना। बहुत कठिन है अच्छी खबर लिखना आजकल , अच्छे दिन की बात याद करते डर सा लगता है। सब तरफ यही हाल है जो नहीं करना करते हैं और जो करना है वो करते नहीं।  मैं भी मौत की बात लिखकर किसी की मौत को पल भर की खबर नहीं बना सकता , मौत आनी है आती है मगर ऐसे नहीं।  मौत का व्यौपार होने लगा है , लाशों पर रोटियां सेकने लगे हैं नेता ही नहीं खबरची भी। इस पर भी चर्चा थी सीमा पर सैनिक को आंतकवादी बंधक बनाकर मौत से पहले उसके साथ वीडिओ बनाते हैं बात का और वॉयरल भी करते हैं , उसकी खबर को महत्व देना है या इक पत्रकार की हत्या को। आम नागिक की मौत खबर नहीं होती है , उसका विज्ञापन छपता है शोक सभा का। किसी नेता की अस्पताल में जांच हो रही है तो दिन भर उनको इस तरह याद करते हैं टीवी वाले जैसे यमराज से सूचना मिली हो अभी अवसर है उनकी पुरानी बातों को याद कर लो। ज़िंदगी अब बता किधर जाएं , ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं। ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं , और क्या जुर्म है पता ही नहीं। बड़ी अच्छी ग़ज़ल है इक शायर की। लोग ग़ज़ल सुनते हैं आवाज़ की मधुरता और संगीत का लुत्फ़ उठाने को , समझते नहीं है अर्थ क्या है।  हर शेर पर तालियां नहीं बज सकतीं , बहुत शेर सन्नाटा मांगते हैं , ख़ामोशी। मगर ये शायर भी अजीब हैं वाह वाह चाहते हैं आह की बात पर आह निकलती नहीं किसी की ये कैसी संवेदना है। लोग जाते हैं अफ़सोस जताने कुछ पल को , अफ़सोस चार कदम बाद खो जाता है और कुछ और हो रहा होता है।  ये संवेदना भी संवेदनहीनता जैसी है। क्या हुआ है क्या लिखना है जो लिखा नहीं जाता कैसे कहूं। कोई समझेगा क्या राज़ ए गुलशन , जब तक उलझे न कांटों से दामन। बोये हैं बबूल तो कांटें हिस्से में आने ही थे , अब समयो रम गयो अब क्यों रोवत अंध। हर तरफ आग है दामन को बचाएं कैसे , रस्मे उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे। बोझ होता जो ग़मों का तो उठा भी लेते , ज़िंदगी बोझ बनी हो तो उठाएं कैसे। पिता के कंधे पर बच्चे की लाश से बढ़कर बोझ क्या हो सकता है। किसी के साथ नहीं हो ऐसा खुदा , संभल जाओ हवाओं में ज़हर घुला हुआ है सांस लेना भी मुश्किल हुआ है। इस तरह किसी घर का चिराग नहीं बुझे कि उसके धुएं में तमाम उम्र दम घुटता रहे।

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