जून 11, 2018

कहानी नहीं है ( बेबसी जुर्म है ) - डॉ लोक सेतिया

          कहानी नहीं है ( बेबसी जुर्म है ) डॉ लोक सेतिया 

   ऐसा हुआ विश्वास करने में अभी भी समय लगेगा। किसी फ़िल्मी कहानी में भी इतना शायद ही देखा हो। जो टीवी पर सीआईडी की तरह के शो में कहानी होती है ये उस से ज़्यादा उलझी हुई है। इस की पटकथा किस ने लिखी कभी कोई नहीं समझ सकेगा। कुछ पड़े लिखे सभ्य दिखाई देने वाले और धर्म और धार्मिकता की बड़ी बड़ी बातों से खुद को समाज की भलाई के पैरोकार समझने वाले या फिर ऐसा होने का लबादा ओढ़े लोग लगता था कितने भले हैं लेकिन वास्तव में अपना जाल बुनकर बिछा चुके थे। और हम इक छोटे शहर के खुद को शिक्षित समझने वाले परिवार के सभी सदस्य इस कदर नासमझ थे कि सामने देख भी नहीं देख पाये कि कोई हमें अपने जाल में फ़ांस रहा है। हमारे ही बीच से किसी को अपनी बातों से प्रभावित कर लिया था इस हद तक कि वो अपनी ही ज़िंदगी को दांव पर लगाने को राज़ी हो गया। जैसे किसी ने सम्मोहित कर लिया हो और अपने इशारों पर नचाता हो फिर भी ज़हर पीने वाला चुपचाप जानते हुए ज़हर पी जाये। उसे अभी भी लगता है ये उसकी शराफत थी जो उसने पहले से बता दिया था कि हम तुम्हारी ज़िंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं। वो जनता था कुछ दिन बाद ये राज़ खुलना ही है और सबसे बड़ा दोषी वही ठहराया जायेगा , इस तरह उसने बड़ी चालाकी से खुद को बचाने का उपाय कर लिया था। अपने को सब से समझदार समझने वाले हमारे परिवार के सदस्य को अपनी समझ और काबलियत पर इतना भरोसा था कि उसने सब जानते हुए भी अपने ही घर में किसी को नहीं बताया कि हम सब को कैसे ज़हर देने का काम किया जा रहा है। आज भी हम नहीं जानते कि हमारे साथ क्या हुआ क्यों हुआ , और हम समाज की परम्पराओं और मर्यादा के नाम पर लब सी कर अपने ही कातिलों को मसीहा कहते हैं ये जानते हुए भी कि वो मसीहा होने का लबादा ओढ़े हुए वास्तव में इंसान भी नहीं हैं। शायद मेरी गलती या भूल ही नहीं हद दर्जे की मूर्खता है जो मैंने इस ज़माने में हर किसी पर भरोसा करना छोड़ा नहीं बार बार धोखे खाने के बाद भी। आखिरी वक़्त तक मुझे ये एहसास होता रहा था कहीं कोई गड़बड़ है कुछ खतरा है और अंतिम पल तक वापस लौट जाना चाहिए। ये इक कठिन फैसला था जो मेरे इलावा कोई नहीं ले सकता था , मगर शायद हमेशा की ही तरह मुझे में आत्मविश्वास की कमी भी थी और बाकी लोगों पर अपने से बढ़कर भरोसा करने की आदत भी। सब समझाते रहे जैसा मुझे लगता है उस तरह का नहीं है और सब सही हो जायेगा बस थोड़ा आपसी समझ का अंतर है। नहीं अब कुछ भी नहीं हो सकता , अभी भी साहस नहीं कोई निर्णय लेने का , अब कोई राह ही नहीं बची है। आज कोई फैसला जो जो गलत हुआ उसे फिर से सही नहीं कर सकता है। जीवन भर इक दर्द तड़पाएगा मुझे , किसी कांटों की सेज पर सोने जैसा जो चैन से नहीं जीने देगा। पता नहीं यहां भगवान की बात करनी चाहिए भी अथवा नहीं , क्योंकि भगवान कभी किसी का बुरा नहीं करता है , भगवान कभी बुरे लोगों का साथ नहीं दे सकता। मगर भगवान उस पर भरोसा रखने वालों को बचा तो सकता है। उसने शायद समझाना भी चाहा मगर मुझी को समझ नहीं आया तब क्या करना चाहिए लेकिन आज अब इतना तो सोचता ही हूं कि क्या वास्तव में भगवान ऐसे जालसाज़ी धोखा छल कपट करने वालों को माफ़ कर देगा। कुछ भी नहीं है मेरे हाथ में सिवा उस भगवान पर भरोसा करने के कि ये सब जो भी जैसे भी हुआ तुम्हें ही इसे ठीक भी करना है और हम सभी की ज़िंदगी की कहानी को सुलझाना भी है। इक बात अब तय करनी ही है कि मैं अपने कातिलों को अपराधियों को मुजरिमों को जीवन भर माफ़ कभी नहीं कर सकता , बेशक मैं बेबस हो गया हूं और लाचार भी। इस बात को भूल जाना संभव भी नहीं और भुलाना भी गुनाह है। 

1 टिप्पणी:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, २ महान क्रांतिकारियों की स्मृतियों को समर्पित ११ जून “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !