अक्तूबर 09, 2016

मेरा घर है या पागलखाना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     मेरा घर है या पागलखाना ( व्यंग्य )  डॉ लोक सेतिया 

                  उसको देखा तड़पते हुए ज़ख़्मी हालत में तो मुझे दया आ गई और मैं उसको अपने घर ले आया। नाम पूछा तो कहने लगा सच है मेरा नाम। मैंने कहा सच ये कैसी हालत हो गई है तुम्हारी , किसने घायल किया है तुम्हें। कहने लगा अब किस किस का नाम लूं , सभी तो शामिल हैं मुझे ज़ख्म देने में। जब कोई अदालत किसी बाहुबली नेता को बरी करती है सभी गुनाहों के आरोपों को निराधार बता कर तब एक गहरा घाव मेरे बदन पर होता ही है। जब हर दिन टीवी वाले और अख़बार वाले सत्ता के लोभी नेताओं का गुणगान करते हैं उनको देशभक्त बताते हैं तब भी मुझे ज़ख्म मिलता ही है।चाहे नेताओं के झूठ फरेब वाले भाषण हों अथवा मीडिया द्वारा तर्क कुतर्क से गलत को सही और झूठ को सच साबित करना , मेरी आत्मा तक को घायल करते हैं। सच को ये रोज़ क़त्ल करते हैं और खुद को सच का पैरोकार भी बताते हैं। मैं सच को अपने घर ले आया तो घर के लोग मुझ से नाराज़ हो गये , कहते हैं भला किस काम है ये आजकल , सच को घर में जगह देना बड़ी मुसीबत मोल लेना है।  मुझसे कहते हैं परिवार वाले कभी तो फायदे  का सौदा किया करूं , जो भी करता हूं घाटे का ही काम करता हूं। मगर मैंने सच को अपने घर में ठिकाना बनाने दिया और सोच लिया कि जब ओखली में सर दिया है तो मूसलों से क्या डरना। सच को शायद थोड़ा चैन अवश्य मिला होगा मेरी बात से फिर भी बोला भाई लेखक तुम मुझे अकेला तो नहीं छोड़ दोगे अपना बना कर। मैंने कहा तुम निराश क्यों होते हो , मैं ही नहीं यहां और भी तमाम लोग हैं जो तुम्हें बेहद चाहते हैं वो सभी तुम्हारे लिये बहुत कुछ करेंगे जब देखेंगे तुम्हारी दशा को। बस तुम एक बार चल कर उनसे मिल तो लो अख़बार वालों से टीवी चैनेल वालों से। वह हंस दिया , मगर उसकी हंसी में तंज नहीं दर्द था , अपनों द्वारा छले जाने का। कहने लगा कितने मूर्ख हो लेखक अभी तक नहीं समझे उनको , उन्हीं के कारण ही तो मेरी ऐसी हालत हुई है। कभी मेरा ठिकाना वही था  , अब तो उन्होंने मुझे निकाल बाहर फैंक दिया है , पहचानते तक नहीं मुझे आजकल। मुझे समझाते हैं खामोश रहो नहीं तो जान से हाथ धो बैठोगे। वो तो झूठ को सच साबित कर उसका कारोबार करने लगे हैं , कोई पत्रकार सच को तलाश करने नहीं जाता कहीं। उनको तो मेरी क्या खबर की भी परिभाषा तक याद नहीं है।

                        मैंने कहा चलो हम चलते हैं उनको अपनी बात कहते हैं , उनका दावा है सभी के विचारों को  अभिव्यक्त करने के अधिकार की रक्षा करते हैं वो। सच बोला सुना है मैंने मगर ऐसा वो केवल अपने लिये मानते हैं दूसरों के लिये हर्गिज़ नहीं , और जो उनसे सहमत नहीं हो उसके लिये तो कदापि नहीं। अब खुद को समाज का चौकीदार या रखवाला नहीं खुदा समझते हैं जिस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता , बस उन्हीं को हर किसी पर सवाल करने का हक है। देश समाज की भलाई से अधिक महत्व उनके लिये अपने अहम का है , समाज को जागरुक करना या बदलाव की बात करना उनका मकसद नहीं रहा , टी आर पी , प्रसार संख्या , सब से पहले और तेज़ कौन की अंधी दौड़ में शामिल होकर बाकी सब पीछे छोड़ आये हैं। आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास , पत्रकारिता की दशा ऐसी हो चुकी है। आज कुछ कहते हैं दो दिन बाद कुछ और कहते हैं , उल्टी बात को सीधा साबित करते हैं और कभी नहीं मानते कल जो कहा था वो गलत था , उनको खेद है। अपनी भूल कभी स्वीकार नहीं करते , औरों को खुद न्यायधीश बन अपराधी घोषित भी करते है और साबित भी। किसी से बयान लेते हैं मगर उसको बोलने नहीं देते , उसको कहते हैं आप यही कहना चाहते हैं , ऐसे अपनी बात अपने शब्द दूसरे के मुंह में ठूंसते हैं। हर बात में उनको अपना विशेषाधिकार याद रहता है , सभी को बराबरी का अधिकार हो ये उनको मंज़ूर नहीं है। प्रशासन और नेताओं से मित्रता करते हैं सरकारी विज्ञापन और अन्य सुविधा हासिल करने को , अपने काम निकलवाने को , अपनी गाड़ी पर प्रेस शब्द लिखवा समझते हैं अधिकार मिल गया यातायात नियमों को अनदेखा करने का। लगता है आज की पत्रकारिता निरंकुश है , बंदर के हाथ में तलवार की तरह खतरनाक। हर कोई इनसे भय खाता है , शरीफ लोग अधिक डरते हैं।

                 मैंने सच से कहा चलो आज खरा सच क्या है और किसके सच में खोट मिला है इसकी परीक्षा करते हैं।  इक नामी पत्रकार हैं जो साक्षात्कार लिया करते हैं हर किसी का और समझा जाता है नीर क्षीर को स्पष्ट कर सकते हैं। मैंने उनको फोन किया और बताया सच के बारे और पूछा क्या आप उस से मिलना चाहते हैं , सच से मुलाकात करेंगे ताकि उसका साक्षात्कार प्रकाशित कर सकें अपने कालम में। बोले पहले बताओ उसके पास कोई प्रमाणपत्र है सच होने का , किसी सरकारी विभाग से मिला परिचय पत्र , किसी अदालत ने उनकी सच होने की पहचान को शपथ लेकर प्रमाणित किया है। सच ने कहा भला सच को इनकी क्या ज़रूरत है , यूं भी यही सब तो झूठ लिये फिरता है सबूत सब को दिखने को। क्या खुद को सच साबित करने को मुझे भी झूठ ही का सहारा लेना होगा , प्रमाणपत्र पाने को। सच क्या सभी को समझ नहीं आता कि यही सच है। पत्रकार सच की बात से चिढ़ गये और बोले ये तो कोई पागल लगता है , मुझे किसी पागल से मिलने की फुर्सत नहीं है आज , आज तो मुझे साक्षात्कार लेने जाना है उन लोकप्रिय नेता जी का जिनको अदालत ने कई साल बाद ज़मानत पर रिहा किया है। किसी दार्शनिक ने कहा है सच बोलना पागलपन ही होता है , और समझदार लोग सदा सच से दूर रहते हैं ताकि किसी से बैर या टकराव की नौबत नहीं आये। झूठ की जय जयकार से लोग मालामाल हो जाते हैं। क्या जहां सच रहता हो वो पागलखाना होता है , मुझे अपने घर को क्या पागलखाना नहीं बनने देना चाहिये , क्या मैं भी पागल हूं , सच की तरह।

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