अगस्त 04, 2015

महिला जगत के लिये , पैगाम-ए-ग़ज़ल ( शायर मजाज़ लखनवी से डॉ लोक सेतिया "तनहा" तक )

            महिला जगत के लिये , पैगाम-ए-ग़ज़ल 

     ( शायर  मजाज़ लखनवी से डॉ  लोक सेतिया "तनहा" तक )

                        मजाज़ लखनवी जी  की  ग़ज़ल :- 

                    हिजाबे फ़ितना परवर अब हटा लेती तो अच्छा था ,
                     खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था।

                     तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है ,
                    तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था।

                     तेरा ये ज़र्द रुख ये खुश्क लब ये वहम ये वहशत ,
                      तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था।

                     दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल ,
                      तू आंसू पौंछकर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था।

                     तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मत का तारा है ,
                     अगर तू साज़े बेदारी उठा लेती तो अच्छा था।  

                       ( साज़े - बेदारी = बदलाव का औज़ार )

                      तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन ,
                      तू इस आंचल को इक परचम बना लेती तो अच्छा था।





   ये शायद गुस्ताखी है कि ऐसे शायर के इतने लाजवाब कलाम के बाद ये नाचीज़ अपनी नई लिखी ताज़ा ग़ज़ल सुनाये।  मगर ऐसा इसलिये कर रहा हूं कि मुझे भी वही पैगाम आज फिर से दोहराना है , अपने अंदाज़ में।  पढ़िये शायद आपको कुछ पसंद आये :::::::

                         ग़ज़ल डॉ लोक सेतिया "तनहा"

                      ज़माने को बदलना है , नई दुनिया बसाना है ,
                      उठा कर हाथ अपने , चांद तारे तोड़ लाना है।

                      कभी महलों की चाहत में भटकती भी रही हूं  मैं ,
                      नहीं पर चैन महलों में वो कैसा आशियाना है।

                      मुझे मालूम है तुम क्यों बड़ी तारीफ करते हो ,
                      नहीं कुछ मुझको देना और सब मुझसे चुराना है।

                     इसे क्या ज़िंदगी समझूं , डरी सहमी सदा रहती ,
                     भुला कर दर्द सब बस अब ख़ुशी के गीत गाना है।

                      मुझे लड़ना पड़ेगा इन हवाओं से ज़माने की ,
                       बुझे सारे उम्मीदों के चिरागों को जलाना है।

                     नहीं कोई सहारा चाहिए मुझको , सुनो लोगो ,
                    ज़माना क्या कहेगा सोचना , अब भूल जाना है।

                      नहीं मेरी मुहब्बत में बनाना ताज तुम कोई ,
                  लिखो "तनहा" नया कोई , हुआ किस्सा पुराना है।

                                ( डॉ लोक सेतिया "तनहा" )   
 

 

4 टिप्‍पणियां:

सुनीता अग्रवाल "नेह" ने कहा…

bilkul sahi mudda uthaya aapne ...
मुझे लड़ना पड़ेगा इन हवाओं से ज़माने की ,
बुझे सारे उम्मीदों के चिरागों को जलाना है।
नहीं मुझको सहारों की ज़रूरत अब कहो सब से ,
ज़माना क्या कहेगा आज मुझको भूल जाना है।
khub

Street Mail ने कहा…

Bahoot khoob

Unknown ने कहा…

जी मैं ग़ज़ल को बारीकियों के साथ सीखना चाहती हूँ

Dr. Lok Setia ने कहा…

ग़ज़ल कैसे कहें सीखना चाहती हैं तो कमैंट्स की जगह नहीं।
आपको कोई तलाश करना होगा जो समझता है समझा सकता है।
कुछ किताबें भी हैं आपको ढूंढनी पड़ेंगीं तभी मिलेंगीं।
ग़ज़ल कैसे लिखें फेसबुक पर मेरा पेज है जो कुछ सहायता कर सकता है।
व्यंग्य साहित्य की दुनिया नाम से फेसबुक है। डॉ लोक सेतिया।