अक्तूबर 16, 2014

ज़माने को बदलना है , नई दुनिया बसाना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      ज़माने को बदलना है , नई दुनिया बसाना है ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ज़माने को बदलना है , नई दुनिया बसाना है
उठा कर हाथ अपने , चांद -तारे तोड़ लाना है।

कभी महलों की चाहत में , भटकती भी रही हूं मैं
नहीं पर चैन महलों में , वो कैसा आशियाना है।

मुझे मालूम है , तुम , क्यों बड़ी तारीफ़ करते हो
नहीं कुछ मुझको देना , और सब मुझसे चुराना है।

इसे क्या ज़िंदगी समझूं , डरी सहमी सदा रहती
भुला कर दर्द सब , बस अब ख़ुशी के गीत गाना है।

मुझे लड़ना पड़ेगा , इन हवाओं से ज़माने की
बुझे सारे उम्मीदों के चिरागों को जलाना है।

नहीं कोई सहारा चाहिए मुझको , सुनो लोगो
ज़माना क्या कहेगा , सोचना , अब भूल जाना है।

नहीं मेरी मुहब्बत में बनाना ताज तुम कोई
लिखो "तनहा" नया कोई हुआ किस्सा पुराना है।

2 टिप्‍पणियां: