नवंबर 29, 2012

गांव अपना छोड़ कर हम पराये हो गये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      गांव अपना छोड़ कर हम पराये हो गये ( ग़ज़ल ) 

                          डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गांव  अपना छोड़ कर , हम  पराये हो गये 
लौट कर आए मगर बिन  बुलाये हो गये ।

जब सुबह का वक़्त था लोग कितने थे यहां
शाम क्या ढलने लगी ,  दूर साये हो गये ।

कर रहे तौबा थे अपने गुनाहों की मगर 
पाप का पानी चढ़ा फिर नहाये  हो गये ।

डायरी में लिख रखे ,पर सभी खामोश थे
आपने आवाज़ दी , गीत गाये  हो गये ।

हर तरफ चर्चा सुना बेवफाई का तेरी
ज़िंदगी क्यों  लोग तेरे सताये  हो गये ।

इश्क वालों से सभी लोग कहने लग गये 
देखना गुल क्या तुम्हारे खिलाये हो गये ।

दोस्तों की दुश्मनी का नहीं "तनहा" गिला
बात है इतनी कि सब आज़माये  हो गये । 
 

 

नवंबर 28, 2012

हाल अच्छा क्यों रकीबों का है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हाल अच्छा क्यों रकीबों का है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हाल अच्छा क्यों रकीबों का है
ये भी शिकवा कुछ अदीबों का है ।

मिल रहा सब कुछ अमीरों को क्यों
हक बराबर का गरीबों का है ।

मांगकर मिलता नहीं छीनो अब 
फिर सभी अपने  नसीबों का है ।

किसलिये  डरना किसी ज़ालिम से 
डर नहीं कोई सलीबों का है ।

दर्द गैरों का दिया कुछ "तनहा"
और कुछ अपने हबीबों का है । 
 

 

नवंबर 25, 2012

किया था वादा तुमने कृष्ण ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    किया था वादा तुमने कृष्ण ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

धरती पर बढ़ जाता है
जब अधर्म
उसका अंत करने को
लेते हो तुम जन्म
गीता में कहा था तुमने
हे कृष्ण।

आज हमें हर तरफ
आ रहे हैं नज़र
कितने ही कंस हैं
तुम्हारी जन्म भूमि पर। 

हम हर वर्ष मनाते हैं
जन्माष्टमी का त्यौहार
रख कर दिल में उम्मीद 
कि आओगे तुम
निभाने अपना वादा
कर दोगे अंत इन सब का।

क्या भूल गये
अपना किया वादा तुम
अच्छा होता
न करते तुम ऐसा वादा।

दिया होता गीता में
सब को ये सन्देश
कि हम सब को
स्वयं बनना होगा कृष्ण।

पाप और अधर्म का
अंत करने के लिये  
तब शायद न ले पाते
नित नये नये कंस जन्म
इस धरती पर हे कृष्ण।

नवंबर 23, 2012

दूर रहते हो क्यों तुम हर किसी से ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दूर रहते हो क्यों तुम हर किसी से ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दूर रहते हो क्यों तुम हर किसी से
पास आ कर मिलो इक दिन सभी से ।

पास जितना उसे तुम बांट देना
मांगना फिर सभी कुछ ज़िंदगी से ।

कह दिया क्या उसे मरने चला है
देख लो हो गया क्या दिल्लगी से ।

रोकना चाहते हो रोक लो अब
छोड़ शिकवा गिला आवारगी से ।

आज नासेह से पूछा किसी ने
क्या खुदा मिल गया है बंदगी से ।

रुक सका आज तक तूफां कभी है
रोकते हो मुझे क्यों आशिकी से ।

जिनकी खातिर जिये "तनहा" अभी तक
मर गये  आज उनकी बेरुखी से । 
 

 

नवंबर 22, 2012

वो साहित्य कहाँ है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      वो साहित्य कहां है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कब का मिट चुका लुट चुका
जिसको चाहते हैं ढूंढना हम सब।

उजड़ा उजड़ा सा है चमन
मुरझाये हुए हैं फूल सभी
रुका हुआ
प्रदूषित जल तालाब का
कुम्हलाए हुए
कंवल के सभी फूल।

हवाओं में है अजब सी घुटन
बेचैन हो रहा हमारा तन मन
हो रहा है जैसे मातम कोई।

कहां गई
खुशियों की महफिलें।

कहां भूल आये सभी सदभावना
क्यों खो गई संवेदनाएं हमारी
आता नहीं अब कहीं नज़र
होता था कभी जो अपनी पहचान।

सुगंध थी जिसमें फूलों की
महक थी जो बहारों की
नदी का वो बहता पानी
समुन्दर सी गहराई लिये
प्यार का सबक पढ़ाने वाला
मानवता की राह दिखाने वाला।

नई रौशनी लाने वाला
अंधेरे सभी मिटाने वाला
आशा फिर से जगाने वाला
पढ़ने वाला पढ़ाने वाला
साहित्य वो है कहां।

नवंबर 21, 2012

फूल पत्थर के ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    फूल पत्थर के ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

साहित्य में
बड़ा है उनका नाम
गरीबों के हमदर्द हैं
कुछ ऐसी बनी हुई
उनकी है पहचान।

गरीब बेबस शोषित लोग
उनकी रचनाओं के
होते हैं किरदार 
मानवता के दर्द की संवेदना
छलकती नज़र आती है
उनके शब्दों से।

मिले हैं दूर से कई बार उनसे
उनके लिए
बजाई हैं तालियां
आज गये हम उनके घर
उनसे  करने को मुलाक़ात।

देखा जाकर वहां
नया एक चेहरा उनका
उनके घर के कई काम करता है
किसी गरीब का बच्चा छोटा सा।

खड़ा था सहमा हुआ
उनके सामने कह रहा था
हाथ जोड़ रोते हुए
मेरा नहीं है कसूर
कर दो मुझे माफ़।

लेकिन रुक नहीं रहे थे
उनके नफरत भरे बोल
घायल कर रहे थे
उनके अपशब्द एक मासूम को
और मुझे भी
जो सुन रहा था हैरान हो कर।

डरने लगा था मन मेरा
देख उनके चेहरे पर
क्रूरता के भाव
उतर गया था जैसे उनका मुखौटा।

वो खुद लगने लगे थे
खलनायक
अपनी ही लिखी कहानी के।

लौट आया था मैं उलटे पांव
वे वो नहीं थे जिनसे मिलने की
थी मुझे तमन्ना।

आजकल बिकते हैं बाज़ार में
कुछ खूबसूरत फूल
पत्थर के बने हुए भी
लगते हैं हरदम ताज़ा
पास जाकर छूने से लगता है पता।

नहीं फूलों सी कोमलता का
उनमें कोई एहसास।

मुरझाते नहीं
मगर होते हैं संवेदना रहित
खुशबू नहीं बांटते
पत्थर के फूल कभी। 

अमर कहानी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

अमर कहानी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

बेहद कठिन है
लिखना
जीवन की कहानी
नहीं आसान होता
समझना
जीवन को
करते हैं 
प्रतिदिन संग्राम
जीने के लिये 
कथाकार की
कल्पना जैसा
होता नहीं
कभी किसी का
जीवन वास्तव में ।

बदलती रहती
पल पल परिस्थिति
मिलना बिछुड़ना
हारना जीतना
सुख दुःख जीवन में
नहीं सब होता
किसी के भी बस में
कदम कदम विवशता 
आती है नज़र
सब कुछ घटता जीवन में
देख नहीं पाता कोई भी
अनदेखा
अनसुना भी
रह जाता
बहुत कुछ है
जीत जाता हारने वाला
और जीतने वाले
की हो जाती हार
अक्सर जाती यहां बदल
उचित अनुचित की परिभाषा
किसे मालूम क्या है
पूर्ण सत्य जीवन का ।
 
कैसे तय कर सकती है
किसी कथाकार की कलम
नायक कौन
कौन खलनायक
जीवन में
कहां बच पाता लेखक भी
अपने पात्रों के मोह से
निष्पक्ष हो
समझना होगा
जीवन के पात्रों को
निभाना होगा
कर्तव्य उसे
जीवन की कहानी के
सभी पात्रों से 
न्याय करने का
उसकी कलम
लिख पाएगी तभी 
कोई कालजयी कहानी
जो अमर बनी 
रहेगी युगों युगों तक । 

 

फिर नये सिलसिले क्या हुए ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

फिर नये सिलसिले क्या हुए ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

फिर नये सिलसिले क्या हुए
सब पुराने गिले क्या हुए।

बीज बोये थे फूलों के सब 
गुल नहीं पर खिले क्या हुए।

इक अकेला मुसाफिर बचा
थे कई काफिले क्या हुए।

बात तक जब  नहीं हो सकी 
यार बिछुड़े मिले क्या हुए।

देखने सब उधर लग गये  
उनके पर्दे हिले क्या हुए।

इश्क ने तोड़ डाले सभी 
आपके सब किले क्या हुए।

साथ "तनहा" नहीं रह सके
खत्म फिर फासिले क्या हुए।

खुदा से बात ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      खुदा से बात ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कहते हैं लोग
दुनिया में अच्छा-बुरा
जो भी होता है
सब होता है तेरी ही मर्ज़ी से।

अन्याय अत्याचार
धर्म तक का होता है
इस दुनिया में कारोबार।

तेरी मर्ज़ी है इनमें
मैं कर नहीं सकता
कभी भी स्वीकार।

सिर्फ इसलिए कि याद रखें
भूल न जाएं तुझको
देते हो सबको परेशानियां
दुःख दर्द समझते हैं
दुनिया के  कुछ लोग।

ऐसा तो करते हैं
कुछ  इंसान
कर नहीं सकता
खुद भगवान।

खुदा नहीं हो सकता
अपने बनाए इंसानों से
इतना बेदर्द
निभाता होगा अपना हर फ़र्ज़।

लगता है
कर दिया है बेबस तुझको
अपने ही बनाए इंसानों ने
जैसे माता पिता
हैं यहां बेबस संतानों से।

अपने लिए सभी
करते तुझ से प्रार्थना
मैं विनती कर रहा हूँ
पर तेरे लिए।

बचा लो इश्वर
अपनी ही शान
फिर से बनाओ अपना ये जहान
होगा हम सब पर एहसान।

अब फिर बनाओ दुनिया इक ऐसी
चाहते हो तुम खुद जैसी
अच्छा प्यारा खूबसूरत
बनाओ इक ऐसा फिर से जहां।

जिसमें न हो दुःख दर्द कोई
मिलती हों सबको खुशियां।

अन्याय  अत्याचार का
जिसमें न हो निशां
ऐ खुदा अब बनाना
इक ऐसी नई दुनिया।

नवंबर 20, 2012

बिकने लगी जब मां करोड़ों करोड़ में ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       बिकने लगी जब मां करोड़ों करोड़ में ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बिकने लगी जब माँ करोड़ों करोड़ में
सब लोग शामिल हो गए खुद ही दौड़ में ।

जीने के बारे सोचते लोग अब नहीं
सारा ज़माना लग गया जोड़ तोड़ में ।

तुम वक़्त की रफ़्तार को रोकना नहीं
बचना नहीं आसान इस की मरोड़ में ।

कैसे बतायें क्या लिखा क्या नहीं लिखा
मिलती कहां हर बात दुनिया के जोड़ में ।

हम तो सभी को साथ लेते गये मगर
कुछ लोग खुद बिछुड़े बदल राह मोड़ में ।

करने लगे हैं प्यार नेता भी देश से
उठने लगी हो खाज जैसे कि कोड़ में ।

"तनहा" ज़माना दौड़ता और हांफता
शामिल  कभी होते नहीं आप होड़ में ।
 

 

नवंबर 19, 2012

मेरी खबर ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      मेरी खबर ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

पहचाना नहीं आज तुमने मुझे
तुम्हें फुर्सत नहीं थी मिलने की
करनी थी मुझको जो बातें तुमसे 
रहेंगी उम्र भर सब अब अधूरी।

मगर शायद वर्षों बाद पढ़ कर
सुबह का तुम अखबार
या सुन कर किसी से  समाचार
आओगे घर मेरे तुम भी एक बार
ढूंढ कर मेरा ठिकाना।

मुमकिन है सोचो तब तुम
कोई तो दे जाता मैं तुम्हें निशानी
काश दोहराते पुरानी हम यादें
सुनते-सुनाते जुबां से अपनी
नई हम कहानी।

मिला है जो
जवाब तुमसे अभी
वही खुद अपने से
मिलेगा तुम्हें कभी
नहीं मिल सकूंगा मैं।

होगी शायद
तुमको भी निराशा
होगी खत्म तुम्हारी भी
मुझसे मिलने की
हर आशा।

ये सब जीते जी
नहीं  कर सकूंगा मैं
जो किया है तुमने
वो नहीं दोहराऊंगा मैं।

होगा ऐसा इसलिये 
मेरे दोस्त उस दिन
क्योंकि मैं अलविदा
कह चुका हूंगा दुनिया को।

और आये होगे
तुम मेरे घर पर
पढ़कर  या सुनकर
मेरे मरने की खबर।

हैं खुदा जो वही अब यहां रह रहे हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       हैं खुदा जो वही अब यहां रह रहे हैं ( ग़ज़ल )

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हैं खुदा जो वही अब यहां रह रहे हैं
आदमी सब न जाने कहां रह रहे हैं ।

बोलने की किसी को इजाज़त नहीं है
हर ज़ुबां सिल चुकी हम जहां रह रहे हैं ।

ले चलो उस तरफ को जनाज़ा हमारा
यार सारे हमारे वहां रह रहे हैं ।

लोग कहने लगे हम नहीं साथ रहते
तुम बता दो सभी को कि हां रह रहे हैं ।

बाद मरने के जन्नत में जाकर ये देखा
हो गई भीड़ अहले जहां रह रहे हैं ।

ढूंढता फिर रहा आपको है ज़माना
आप क्यों इस तरह बन निहां रह रहे हैं ।

जुर्म साबित नहीं जब हुआ है तो "तनहा"
किसलिये फिर झुकाए दहां रह रहे हैं ।
 

 

मधुर सुर न जाने कहां खो गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मधुर सुर न जाने कहां खो गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मधुर सुर न जाने कहां खो गया है
यही शोर क्यों हर तरफ हो गया है ।

बता दो हमें तुम उसे क्या हुआ है
ग़ज़लकार किस नींद में सो गया है ।

घुटन सी हवा में यहां लग रही है
यहां रात कोई बहुत रो गया है ।

नहीं कर सका दोस्ती को वो रुसवा
मगर दाग अपने सभी धो गया है ।

करेंगे सभी याद उसको हमेशा
नहीं आएगा फिर अभी जो गया है ।

कहां से था आया सभी को पता है
नहीं जानते पर किधर को गया है ।

मिले शूल "तनहा" उसे ज़िंदगी से
यहां फूल सारे वही बो गया है । 
 

 

नवंबर 18, 2012

मेरी जान , मेरे दोस्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    मेरी जान , मेरे दोस्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

अक्सर आता है मुझे याद 
पहला दिन कालेज का
झाड़ियों के पीछे
पत्थरों पर बैठे हुए थे
हम दोनों कालेज के लान में।

रैगिंग से हो कर परेशान 
कितने उदास थे हम 
कितने अकेले अकेले
पहले ही दिन कुछ ही पल में
हम हो गये थे कितने करीब।

अठारह बरस है अपनी उम्र 
आज भी लगता है कभी ऐसे
कितनी यादें हैं अपनी
जो भुलाई नहीं जाती 
भूलना चाहते भी नहीं थे
हम कभी।

पहली बार मुझे
मिला था दोस्त ऐसा 
जो जानता था
पहचानता था
मुझे वास्तव में।

बीत गये वो दिन कब जाने
छूट गया वो
शहर उसका बाज़ार
गलियां उसकी।

बरसात में भीगते हुए  
हमारा कुछ तलाश करना
बाज़ार से तुम्हारे लिये 
खो गई सपनों जैसी
प्यारी दुनिया हमारी।
 
मगर भूले नहीं हम
कभी वो सपने
जो सजाए थे मिलकर कभी 
अचानक तुम चले गए वहां
जहां से आता नहीं लौटकर कोई।

मुझे नहीं मिला
फिर कोई दोस्त तुम सा 
खाली है मेरे जीवन में
इक जगह
रहते हो अब भी तुम वहां।

आज भी सोचता हूँ
जाकर ढूंढू 
उन्हीं रास्तों पर तुम्हें जहां
चलते रहे दोनों यूं ही शामों को
अब कहां मिलते हैं
इस दुनिया में तुझसे दोस्त।

अब क्या है इस शहर में
इस दुनिया में
बिना तेरे मेरी जान मेरे दोस्त।

                    ( ये कविता मेरे दोस्त डॉ बी डी शर्मा , बीडी के नाम )

नवंबर 17, 2012

कोई ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    कोई ( कविता )    डॉ लोक सेतिया

कोई है धड़कन दिल की
कोई राहों की है धूल।

कोई शाख से टूटा पत्ता
कोई डाली पे खिला फूल।

कोई आंसू मोती जैसा
कोई हो जैसे कि पानी।

कोई आज के दौर की चर्चा
कोई भूली हुई कहानी।

कोई कविता ग़ज़ल हो जैसे
कोई बीते कल का अखबार।

कोई कहीं पर डूबी नैया
कोई माझी संग पतवार।

कोई सूना आंगन मन का
कोई है दिल का अरमान।

कोई अपने घर को भूला
कोई घर घर का महमान।

कोई नहीं कभी बिकता है
कोई बताता अपना दाम।

कोई है आगाज़ किसी का
कोई किसी का है अंजाम। 

नवंबर 16, 2012

ऐसा भी कोई तो हो ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      ऐसा भी कोई तो हो ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

अपना ले जो मुझे
मैं जैसा भी हूं।

हर दिन मुझको
न करवाए एहसास
मेरी कमियों का बार बार।

सोने चांदी से नहीं
धन दौलत से नहीं
प्यार हो जिसको इंसान से
इंसानियत से।

जिसको आता ही न हो
मेरी ही तरह
दुनिया का लेन-देन का
कोई कारोबार।

थाम कर जो
फिर छोड़ जाए न कभी साथ 
रिश्ते-नातों को
जो समझे न इक व्योपार
जिसको आता हो बहाना आंसू
हर किसी के दुःख दर्द में।
नफरत न हो जिसे अश्क बहाने से
जिसमें बाकी हों
मानवता की संवेदनाएं
जन्म जन्म से ढूंढ रहा हूं
उसी को मैं।      

बतायें तुम्हें क्या किया हमने ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बतायें तुम्हें क्या किया हमने ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बतायें तुम्हें क्या किया हमने
ज़माने को ठुकरा दिया हमने ।

बुझी प्यास अपनी उम्र भर की
कोई जाम ऐसा पिया हमने ।

तुझे भूल जाने की कोशिश में
तेरा नाम हर पल लिया हमने ।

नहीं दुश्मनों से गिला करते
उन्हें कह दिया शुक्रिया हमने ।

पुरानी ग़ज़ल को संवारा है
बदल कर नया काफिया हमने ।

गुज़ारी है लम्बी उम्र लेकिन
नहीं एक लम्हा जिया हमने ।

रहा अब नहीं दाग़ तक "तनहा"
तेरा ज़ख्म ऐसे सिया हमने । 
 

 

नवंबर 15, 2012

रास्ते ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

     रास्ते ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मंज़िल की जिन्हें चाह थी
मिल गई
उनको मंज़िल।

मैं वो रास्ता हूं
गुज़रते रहे जिससे हो कर 
दुनिया के सभी लोग।

तलाश में अपनी अपनी
मंज़िल की 
मैं रुका हुआ हूं
इंतज़ार में प्यार की।
 
रुकता नहीं
मेरे साथ कोई भी 
कुचल कर
गुज़र जाते हैं सब
मंज़िल की तरफ आगे।
 
सबको भाती हैं
मंज़िलें 
बेमतलब लगते हैं रास्ते।

क्या मिल पाती तुम्हें मंज़िलें 
न होते जो रास्ते।

रास्तों को पहचान लो 
उनका दर्द
कभी तो जान लो।

नवंबर 14, 2012

हमारा अपना ताज ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

     हमारा अपना ताज ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मुमताज क्या चाहती थी
किसे पता उसे क्या मिला
ताज बनने से।

बनवा दिया
एक राजा ने एक महल
संगेमरमर का
अपनी प्रेमिका की याद में
और कह दिया दुनिया ने
मुहब्बत की निशानी उसे।

तुम नहीं बनवा सकोगे
ताजमहल कोई 
मेरी याद में मेरे बाद
मगर जानती हूं मैं।

तुम चाहते हो बनाना 
एक छोटा सा घर
मेरे लिये 
जिसमें रह सकें
हम दोनों प्यार से।

अपना बसेरा बनाने के लिये 
हमारी पसंद का कहीं पर
हर वर्ष बचाते हो थोड़े थोड़े पैसे 
अपनी सीमित आमदनी में से।

किसी ताज महल से
कम खूबसूरत नहीं होगा 
हमारा प्यारा सा वो घर।

मुमताज से कम
खुशकिस्मत नहीं हूं मैं 
प्यार तुम्हारा कम नहीं है
किसी शाहंशाह से।

नवंबर 13, 2012

मृगतृष्णा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    मृगतृष्णा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

हम चले जाते हैं उनके पास 
निराशा और परेशानी में 
सोचकर कि वे कर सकते हैं
जो हो नहीं पाता है 
कभी भी हमसे।
 
वे जानते हैं वो सब 
नहीं जो भी हमें मालूम
तब वे बताते हैं हमें
कुछ दिन  महीने वर्ष
रख लो थोड़ा सा धैर्य 
सब अच्छा है उसके बाद।

हमें मिल जाती है
झूठी सी आशा इक
इक तसल्ली सी 
सोचकर कि आने वाले हैं
दिन अच्छे हमारे।

कट जाती है उम्र इसी तरह 
झेलते दुःख  परेशानियां 
और जी लेते हैं हम
आने वाले अच्छे दिनों की
झूठी उम्मीद के सहारे।

टूटने लगता है जब धैर्य 
डगमगाने लगता है विश्वास 
फिर चले जाते हैं 
हम बार बार उन्हीं के पास।

ले आते हैं वही झूठा दिलासा 
और नहीं कुछ भी उनके पास
उनका यही तो है कारोबार 
झूठी उम्मीदों
दिलासों का।

शायद होती है
इस की ज़रूरत हमें
जीने के लिये जब
निराशा भरे जीवन में
नहीं नज़र आती
कोई भी आशा की किरण 
जो जगा सके ज़रा सी आशा
झूठी ही सही।

सच साबित होती नहीं बेशक 
उनकी भविष्यवाणियां कभी भी 
तब भी चाहते हैं
बनाए रखें उन पर।

अपना विश्वास 
ऐसा है ज़रूरी उनके लिए भी
शायद उससे अधिक हमारे लिये
जीने की आशा के लिए। 

नवंबर 12, 2012

विवशता ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

        विवशता ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

खाली है मेरा भी दामन
तुम्हारे आंचल की तरह
कुछ भी नहीं पास मेरे
तुम्हें देने को।

तुम्हारी तरह है मुझे भी
तलाश एक हमदर्द की
मेरे मन में भी है बाकी
कोई अधूरी प्यास।

ढूंढती हैं
तुम्हारी नज़रें जो मुझ में 
कहने को लरजते हैं
तुम्हारे होंट बार बार
समझता हूँ लेकिन 
समझना नहीं चाहता मैं
प्यार भरी नज़रों की
तुम्हारी उस भाषा को।

छुप सकती नहीं
मन की कोमल भावनाएं 
जानते हैं हम दोनों।

मत आना मेरे करीब तुम 
भरे हुए हैं
अनगिनत कांटे
दामन में मेरे
हैं नाज़ुक उंगलियां तुम्हारी 
कहीं चुभ न जाए
शूल कोई उनको।

किसी को देने को कोई फूल 
लाल पीला या गुलाबी 
नहीं पास मेरे।

कभी नहीं मिल पाएंगे 
हम तोड़ कर
दुनिया के सारे बंधनों को।

बस आंखों ही आंखों में 
करते रहें बात हम
ख़ामोशी से यूं ही करें 
हर दिन मुलाक़ात हम।

नहीं आफ़ताब चांद तारे नहीं हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नहीं आफ़ताब चांद तारे नहीं हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नहीं आफ़ताब चांद तारे नहीं हैं
कहीं ढूंढते मगर सहारे नहीं हैं ।

रुकेगा नहीं कभी सफीना हमारा
हमें मिल सके अभी किनारे नहीं हैं ।

हमारी नहीं उन्हें ज़रूरत ही कोई
हां हम वालदैन के दुलारे नहीं हैं ।

छुपाना नहीं कभी उसे सब बताना
तुम्हारे हुए मगर तुम्हारे नहीं हैं ।

वही आसमां भी है ,वही है ज़मीं भी
चमकते हुए वही सितारे नहीं हैं ।

न हाथों में तीर है ,न शमशीर कोई
लड़ेंगे मगर अभी तो हारे नहीं हैं ।

उन्हें दोस्तों ने मार डाला है "तनहा"
रकीबों की चाल के वो मारे नहीं हैं । 
 

 

इसी जहां में सभी का जहान होता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       इसी जहां में सभी का जहान होता है ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इसी जहां में सभी का जहान होता है
नई ज़मीन नया आसमान होता है ।

वही ज़माना फिर आ गया कहीं वापस
कभी कभी तो हमें यूं गुमान होता है ।

लिखा हुआ तो बहुत है किताब में लेकिन
अमल जो कर के दिखाए महान होता है ।

वहीं मसल के किसी ने हैं फेंक दी कलियां
जहां सजा के रखा फूलदान होता है ।

जो दर्द लेकर खुशियां सभी को देता हो
वो आदमी खुद गीता कुरान होता है ।

चलो तुम्हें हम घर गांव में दिखा देंगे
यहां शहर में तो केवल मकान होता है ।

नया परिंदा आकाश में लगा उड़ने
ये देखता "तनहा" खुद उड़ान होता है ।
 

 

नवंबर 11, 2012

काश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      काश ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

चले जाते हैं हम लोग
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे गिरजा घर।

करते हैं पूजा अर्चना 
सुन लेते हैं बातें धर्मों  की
झुका कर अपना सर।

और मान लेते हैं
कि खुश  हो गया है ईश्वर
हमारे स्तुतिगान से।

मगर कभी जब कहीं
कोई देता है दिखाई हमें 
दुःख में निराशा में
घबरा कर आंसू बहाता हुआ।

तब हम चुरा लेते हैं नज़रें
और गुज़र जाते हैं
कुछ दूर हटकर।

हमारी आस्था हमारा धर्म
जगा नहीं पाता हमारे मन में
मानवता के दर्द के एहसास को।

काश
कह पाता  ईश्वर तब हमें
व्यर्थ है हमारा उसके दर पे आना। 

ख़त्म बीज करने फसल आ रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ख़त्म बीज करने फसल आ रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ख़त्म बीज करने फसल आ रही है
न जाने ये कैसी नसल आ रही है ।

नहीं ज़िंदगी की शिकायत करेंगे
हमें जब बुलाने अज़ल आ रही है ।

किसी की अमानत उसी को है देनी
न जाये कहीं दिल फिसल आ रही है ।

उसे याद अब तक है मिलने का वादा
वो वादा निभाने को कल आ रही है ।

सभी ख़्वाब देखें , हक़ीकत न देखें
सियासत बताने ये हल आ रही है ।

बहारों को लाने खिज़ा खुद गई है
रुको तुम अभी एक पल आ रही है ।

सुनी और "तनहा" बहुत आज रोये
बिना काफ़िये की ग़ज़ल आ रही है । 
 

 

नवंबर 10, 2012

कहानी ज़ख़्मों की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    कहानी ज़ख़्मों की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

बार बार लिखता रहा
हर बार मिटाता रहा
कहानी अपने जीवन की।

अच्छा है यही
रह जाये अनकही
सदा कहानी मेरे जीवन की।

हो न जाये कोई उदास 
सुनकर मेरी कहानी
जीवन में सभी को होती है
किसी न किसी से कोई आस।

सुनकर मेरी दास्तां 
टूट न जाये
कहीं किसी की कोई उम्मीद।

कैसे खड़ा करूँ कटघरे में
सभी अपनों को बेगानों को
कैसे कह दूं  मिल सका नहीं
कोई भी इस पूरी दुनिया में मुझे।

कैसे कर लूँ मैं स्वीकार 
कैसे जीते जी मान लूँ 
अपनी तलाश की
मैं अभी भी हार।
 
सुनाऊँ अपनी कहानी
मिल जाये  अगर कहीं अपना कोई
आंसुओं से भिगो दूँ उसका दामन
रोये  वो भी साथ मेरे देर तक।

हो जाये मेरे हर दुःख दर्द 
और अकेलेपन का अंत।
 
मगर लिखी जाती नहीं 
उस फूल की कहानी
जिसको मसल डाला
खुद माली ने।

कहानी उस पत्थर की
लगाते रहे जिसको
ठोकर सभी लोग।

नहीं लिखी जाती
उन सपनों की कहानी
बिखरते रहे हर सुबह जो
उन रातों की कहानी
जिनमें हुई न कभी चांदनी।

उन सुबहों की क्या लिखूं कहानी ,
मिटा पाया न जिनका सूरज
मेरे जीवन से अँधेरा।

काँटों के दर्द भरे शब्दों से
मुझे नहीं लिखनी है
किसी किताब के पन्ने पर
अपने ज़ख्मों की कहानी। 

नवंबर 09, 2012

सुगंध प्यार की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

सुगंध प्यार की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

सुनी हैं हीर रांझा
कैस लैला की
सबने कहानियां
मैंने देखा है
दो प्यार करने वालों को
खुद अपनी नज़रों से
कई बार अपने घर के सामने ।

मज़दूरी करना
है उनका काम
पति पत्नी हैं वो दोनों
रहमान और अनीता
हैं दोनों के नाम ।

पूछो मत 
क्या है उनका धर्म
देना मत
उनके प्यार को
ऐसा इल्ज़ाम ।

रहमान को देखा
मज़दूरी करते हुए ऐसे
इबादत हो
काम करना जैसे
नहीं सुनी उनसे
प्यार की बातें कभी
करते हैं जैसे
सब लोग अक्सर कभी ।

देखा है मैंने
प्यार भरी नज़रों से
निहारते
अनीता को
अक्सर रहमान को 
सुना है रहमान को
उसका नाम
पल पल पुकारते ।

निभाती है
सुबह से शाम तक
उसका साथ
न हो चाहे
हाथों में उसका हाथ
अपने पल्लू से
पोंछती रहती
उसका पसीना
कितना मधुर सा
लगता है
प्यार भरा एहसास ।

कभी कुछ पिलाना
कभी कुछ खिलाना
कभी लेकर उससे कुदाल
खुद चलाना ।

कभी गीत प्यार वाले
भी गाते नहीं
मुहब्बत है तुमसे
जताते नहीं
नहीं रूठते हैं
मनाते नहीं ।
 
उम्र भर साथ निभाना है
नहीं कहता
इक दूजे को कोई भी
जानते हैं दोनों
बताते नहीं । 
 

 

उस पार जाना ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

         उस पार जाना ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

ले चल मुझे उस पार 
मेरे माझी
पूछा नहीं कभी भी मैंने
है कहां मेरे सपनों का जहां।

तलाश करने अपनी दुनिया
जाना है उस पार मुझे
मैं  नहीं डरता भंवर से
तूफ़ान से।

दिया नहीं कभी
किसी ने मेरा साथ 
मगर तुम माझी हो मेरे
लगा दो पार नैया मेरी
या डुबो दो भंवर में।

तोड़ो मत मेरा दिल
ये कह कर
कि उस पार कुछ नहीं है।

कह दो मेरे माझी
झूठा है ये  बहाना
मुझे अब भी
है उस पार जाना।    

नवंबर 08, 2012

झूठा है दर्पण ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

       झूठा है दर्पण ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

किया सम्मानित
सरकार ने
साहित्यकार को
और दे दी गई
इक स्वर्ण जड़ित
कलम भी
सम्मान राशि के साथ।

रुक जाता
लिखते लिखते
उनका हाथ
जब भी चाहते लिखना वो
जनता के दुःख दर्द की
कोई बात।

शायद इसलिये 
या फिर अनजाने में ही
मुझे भेज दी
उन्होंने वही कलम
शुभकामना के साथ।

देखा भीतर से
जब कलम को
लगे कांपने मेरे भी हाथ
आया नज़र
स्याही की जगह लहू
डरा गई मुझको ये बात।

ऐसी ही कलमें
आजकल लिख रहीं हैं 
नित नया नया इतिहास।

गरीबों के खून के छींटे 
आ रहे नज़र उनके दामन पर
जो करते तो हैं देशसेवा की बातें 
कर रहे हर दिन
जनता का धन बर्बाद।

आयोजित करते
आडम्बरों के समारोह 
प्रतिदिन शान दिखाने
दिल बहलाने को
नहीं कर पाते वो लोग कभी
गरीबों के दुःख दर्द का
कोई एहसास।
 
करते जिन की हैं बातें
उन भूखे नंगों का
कर रहे ये कैसा उपहास।

कौन दिखाये दर्पण उनको
कौन लगाये उन पर कोई आरोप
जब शामिल हैं इनमें
समाज को आईना दिखाने वाले।

अपनी सूरत
देखें कैसे दर्पण में
और कैसे सब को दिखायें
सरकारी सम्मानों का
क्या है सच
वो हमें कैसे खुद बतायें।  

ठंडी ठंडी छाँव ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    ठंडी ठंडी छांव ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

घर के आंगन का वृक्ष हूं मैं
मेरी जड़ें गहराई तक फैली हैं
अपनी माटी में
प्यार से सालों साल सींचा है
माली ने पाला है जतन से
घर को देता हूं छाया मैं।

आये हो घर में तुम अभी अभी
बैठो मेरी शीतल शीतल छांव में
खिले हैं फूल कितने मुझ पर
निहारो उनको प्यार से
तोड़ना मत मसलना नहीं
मेरी शाखों पत्तों कलियों को
लगेंगे फल जब इन पर
घर के लिये  तुम्हारे लिये 
करो उसका अभी इंतज़ार।

काटना मत मुझे कभी भी
जड़ों से मेरी
जी नहीं सकूंगा 
इस ज़मीन को छोड़ कर
मैं कोई मनीप्लांट नहीं
जिसे ले जाओ चुरा कर
और सजा लो किसी नये गमले में।

देखो मुझ पर बना है घौसला
उस नन्हें परिंदे का
उड़ना है उसे भी खुले गगन में
अपने स्वार्थ के पिंजरे में
बंद न करना उसको
रहने दो आज़ाद उसको भी घर में
बंद पिंजरे में उसका चहचहाना
चहचहाना नहीं रह जायेगा
समझ नहीं पाओगे तुम दर्द उसका।

जब भी थक कर कभी
आकर बैठोगे मेरी ठंडी ठंडी छांव में
माँ की लोरी जैसी सुनोगे
इन परिंदों के चहचहाने की आवाज़ों को
और यहां चलती मदमाती हवा में
आ जाएगी तुम्हें मीठी मीठी नींद।

जीने का अधिकार मिले ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 जीने का अधिकार मिले ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कोई आस्तिक हो
या हो नास्तिक
ईश्वर के लिये 
सभी हों एक समान
होना ही चाहिये 
दुनिया का सिर्फ यही विधान ।

नहीं जानता मैं क्या हूं
आस्तिक या कि नास्तिक
शायद नहीं आता मुझको
करना विनती- प्रार्थना
गुलामी करना नहीं भाता मुझे 
किसी को गुलाम बनाना
भी नहीं चाहता हूं मैं
हम सब हैं बराबर जब इंसान
किसी का किसी पर
नहीं जब कोई एहसान
क्यों  होता है  ऐसा फिर भगवान 
बेबस ही लगता क्यों 
यहां  हर इक इंसान ।

चाहता हूं मैं
सिर्फ जीने का अधिकार
कोई किसी का भी  भक्त नहीं हो 
कोई न हो किसी की  सरकार
मिले जीने की पूरी कभी तो आज़ादी 
आरज़ू है अभी तक
बाकी यही आधी
सौ साल नहीं
उम्र हो चाहे बस इक साल 
ज़िंदगी का पर 
न हो बुरा ऐसा तो हाल
जीना है मुझको अपनी मर्ज़ी से 
नहीं और जीना
जैसा चाहते हों लोग सारे
मर मर कर  ही 
अब तक ज़िंदा रहा हूं 
कहां एक पल भी जी सका मैं
हद हो चुकी है 
ज़ुल्मों सितम की 
नहीं भीख भी चाहिये 
पर तेरे करम की
क्यों किसी को
अपना मालिक सब मानें 
कभी खुद को इंसान 
इंसान ही सिर्फ माने 
किसी के आदेश से
न हो जीना मरना 
अगर कर सको
अब यही बस तुम करना ।

( भगवान बनना मुश्किल बहुत है, नहीं आसां मगर इन्सान भी बनना। कभी तू भी मुझ सा ही बनना।  )
 

 

नवंबर 04, 2012

मैं ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

 मैं ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

मैं कौन हूं
न देखा कभी किसी ने
मुझे क्या करना है
न पूछा ये भी किसी ने
उन्हें सुधारना है मुझको
बस यही कहा हर किसी ने ।

और सुधारते रहे
मां-बाप कभी गुरुजन
नहीं सुधार पाए हों दोस्त या कि दुश्मन ।

चाहा सुधारना पत्नी ने और मेरे बच्चों ने
बड़े जतन किए उन सब अच्छों ने
बांधते रहे रिश्तों के सारे ही बंधन
बनाना चाहते थे मिट्टी को वो चन्दन ।

इस पर होती रही बस तकरार
मानी नहीं दोनों ने अपनी हार
सोच लिया मैंने
जो कहते हैं सभी
गलत हूंगा मैं
वो सब ही होंगें सही
चाहा भी तो कुछ कर न सका मैं
सुधरता रहा
पर सुधर सका न मैं ।

बिगड़ा मैं कितना
कितनी बिगड़ी मेरी तकदीर
कितने जन्म लगेंगें
बदलने को मेरी तस्वीर 
जैसा चाहते हैं सब
वैसा तभी तो मैं बन पाऊं ।

पहले जैसा हूं
खत्म तो हो जाऊं
मुझे खुद मिटा डालो 
यही मेरे यार करो
मेरे मरने का वर्ना कुछ इंतज़ार करो । 
 

 

स्वीकार करने अपने गुनाह ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

  स्वीकार करने अपने गुनाह ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

स्वीकार करने हैं
सभी अपने गुनाह
तलाश करता हूं
ऐसी इक इबादतगाह।

मेरी ज़ुबां से सुने
मेरी ही दास्तां
बन कर के पादरी
जहां पर खुद खुदा।

मंज़ूर है मुझको
हर इक कज़ा
मांग लूंगा मैं अपने
सब जुर्मों की सज़ा।

पूछना है लेकिन
इक सवाल भी मुझे
मिलता क्या है
हमें रुला के तुझे।

तेरे ही बंदे
क्यों इतने परेशान हैं
हम सभी देख कर हैरान हैं
मंदिर सब तेरे बने आलीशान हैं
फिर किसलिये बेघर इतने इंसान हैं।

बना कर ये दुनिया
कहां खो गया है
देख खोल कर आंखें
क्या सो गया है।

दौलतों से बड़ी मुहब्बत है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दौलतों से बड़ी मुहब्बत है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दौलतों से बड़ी मुहब्बत है
अब सभी की हुई ये हालत है ।

बेचते हो ज़मीर तक अपना
देशसेवा नहीं तिजारत है ।

इक तमाशा दिखा लगे कहने
देख लो हो चुकी बगावत है ।

आईना हम किसे दिखा बैठे
यार करने लगा अदावत है ।

आज दावा किया है ज़ालिम ने
उसके दम पर बची शराफत है ।

दोस्त कोई कभी तो मिल जाये 
इक ज़रा सी यही तो हसरत है ।

आप गैरों को चाहते लेकिन
आपसे ही हमें तो उल्फत है ।

जब बुलाएं कभी नहीं आते
दूर से देखने की आदत है ।

राह देखा किये वही "तनहा"
बदलना राह उनकी फितरत है । 
 

 

नवंबर 03, 2012

ग़म हमारे कोई भुला जाये ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

ग़म हमारे कोई भुला जाये ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया 

ग़म हमारे कोई भुला जाये 
मुस्कुराना हमें सिखा जाये ।

कोई अपना हमें बना जाये 
दिल हमारा किसी पे आ जाये ।

ज़िंदगी खुद ही एक दिन चल कर
ग़म के मारों से मिलने आ जाये ।

मुस्कुराते हैं फूल कांटों में
राज़ इसका कोई बता जाये ।

रह के दिन भर मेरे ख्यालों में
रात सपनों में कोई आ जाये ।
 

 

कागज़ के फूल सजाने के ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

कागज़ के फूल सजाने के ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया 

कागज़ के फूल सजाने के
अंदाज़ न सीखे ज़माने के।

आये वो रस्म निभा के चले
अरमान जिन्हें थे बुलाने के।

बेबात ही हम से हैं वो खफा
उन के हैं ढंग सताने के।

मसरूफ थे या वादा भूले
अच्छे हैं बहाने  न आने के।

पत्थर दिल के ये आज सभी
बन बैठे खुदा बुतखाने के। 
 
 

हक़ तो जीने का नहीं है कोई ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

हक़ तो जीने का नहीं है कोई ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

हक़ तो जीने का नहीं है कोई
फिर भी जीता ही कहीं है कोई ।

आह भरना भी जहां होता गुनाह
रोया जा-के वहीं है कोई ।

मौत की मिलके दुआएं मांगें
अब इलाज इसका नहीं है कोई ।

आएगा वो मेरी मैयत पे ज़रूर
कब कहीं आता युं हीं है कोई ।

किसको ढूंढे है नज़र , सहरा में
मिलता कब "तनहा" कहीं है कोई ।
 

 
 
  

नवंबर 02, 2012

मन मोहना बड़े झूठे ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

मन मोहना बड़े झूठे ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

चेहरे का उनके
रंग
पहले से था काला।

कालिख लगा सका न
कोयला घोटाला।

सबक सिखा गया
इमानदार अफसर को
मुजरिम नहीं
मंत्री जी का है साला।

घोटाले करने वाले
बरी हो जाएंगे सब
हुआ है कभी साबित
यहां पर कोई घोटाला।

हुड़दंग करने की
संसद में इजाज़त है
लगा लो अदालत में
मुहं पर मगर ताला।

फ़िल्मी सितारों से
डाकू लुटेरों तक
सत्ता की राजनीति 
सब की हो गई खाला।

मनमोहन कहते
डरना न आरोपों से
दिन चार बाद
होगा ही अब उठाला।

भाई भाई हैं 
पक्ष-विपक्ष के सब नेता
खंजर भी छिपा है
हाथों में है फूलमाला।

वो भी बिके हुए
ये भी बिके हुए
दोनों को चलाता सदा
इक ही पैसे वाला।

गुठलियाँ नहीं आम खाओ ( व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

गुठलियां नहीं , आम खाओ ( व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

गुठलियाँ खाना छोड़ कर
अब आम खाओ
देश के गरीबो
मान भी जाओ।

देश की छवि बिगड़ी
तुम उसे बचाओ
भूख वाले आंकड़े
दुनिया से छुपाओ।

डूबा हुआ क़र्ज़ में
देश भी है सारा
आमदनी नहीं तो
उधार ले कर खाओ।

विदेशी निवेश को
कहीं से भी लाओ
इस गरीबी की
रेखा को बस मिटाओ।

मान कर बात
चार्वाक ऋषि की
क़र्ज़ लेकर सब
घी पिये  जाओ।

अब नहीं आता
साफ पानी नल में
मिनरल वाटर पी कर
सब काम चलाओ।

होना न होना
तुम्हारा एक समान
सारे जहां से अच्छा
गीत मिल के गाओ।

नवंबर 01, 2012

अपने ही संग ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

अपने ही संग ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

रुको जानो स्वयं को
किसलिए खो बैठे हो
अस्तित्व अपना
भागते रहोगे कब तक
झूठे सपनों के पीछे तुम ।

देखो ,कोई पुकार रहा है
आज तुम्हें
तुम्हारे ही भीतर से
तलाश करो कौन है वो
मिलेगा तुम्हें नया सवेरा
नई मंज़िल
एक नया क्षितिज
एक किनारा ।

देखो तुम्हारे अंदर है
परिंदा एक जो व्याकुल है
गगन में उड़ने के लिये
स्वयं को स्वतंत्र कर दो
निराशा के इस पिंजरे से
फिर से इक बार करो 
जीने की नई पहल ।

भुला कर दुःख दर्द को
खोलो खुशियों का दरवाज़ा
छुड़ा अपना दामन
परेशानियों से
सजा लो अधरों पर मुस्कान ।

पौंछ कर
अपनी पलकों के आंसू
आरम्भ करो फिर से जीना
अपने ढंग से
अपने ही लिये ।

देखना कोई
होगा हर कदम
साथ साथ तुम्हारे
नज़र आये चाहे  नहीं
करते रहना
उसके करीब होने का
आभास पल पल तुम ।
 

 

मेरे खत ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      मेरे खत ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मेरे बाद मिलेंगे तुम्हें
मेरे ये खत मेज़ की दराज से
शायद हो जाओ पढ़ कर हैरान
मत होना लेकिन परेशान।

लिखे हैं किसके नाम 
सोचोगे बार बार तुम
मैं था सदा से सिर्फ तुम्हारा
पाओगे यही हर बार तुम।

हर खत को पढ़कर तुम तब
सुध बुध अपनी खोवोगे
करोगे मन ही मन मंथन
और जी भर के रोवोगे।

मैंने तुमको जीवन प्रयन्त
किया है टूट के प्यार
कर नहीं सका कभी भी
चाह कर भी मैं इज़हार।

कर लेना तुम विश्वास तब
मेरे इस प्यार का तुम
किया उम्र भर जो मैंने
उस इंतज़ार का तुम। 

हवाओं को महका दो ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

हवाओं को महका दो ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

हवाओं को महका दो
फज़ाओं को बतला दो ।

बरसती रहें शब भर
घटाओं को समझा दो ।

उठा कर के घूंघट को
ज़रा सा तो सरका दो ।

तुम्हें देखता रहता
ये दर्पण भी हटवा दो ।

खुली छोड़ कर जुल्फें
हमें आज बहका दो ।

हमें तुम कभी "तनहा"
किसी से तो मिलवा दो ।