अक्तूबर 14, 2012

यहां तो आफ़ताब रहते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

यहां तो आफ़ताब रहते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

यहां तो आफताब रहते हैं
कहां, कहिये ,जनाब रहते हैं ।

शहर का तो है बस नसीब यही
सभी खानाखराब रहते हैं ।

क्या किसी से करे सवाल कोई
सब यहां लाजवाब रहते हैं ।

सूरतें कोई कैसे पहचाने
चेहरे सारे खिज़ाब रहते हैं ।

पत्थरों के मकान हैं लेकिन
गमलों ही में गुलाब रहते हैं ।

रूह का तो कोई वजूद नहीं
जिस्म ही बेहिसाब रहते हैं ।  
 

 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Rooh ka koi wazood....👌👍